छींको केहि विधि पायो

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सूरदास रचित कृष्ण के बाल लीला का एक प्रसंग है , गोपियां माता यशोदा से शिकायत करती हैं कि उनका कान्हा घरों में घुस कर सिकहर पर रखी मटकी से माखन चुरा कर खा जाता है ,आप उसे समझा दें। अपने ऊपर लगाए गये इसी आरोप के जवाब में बालक कन्हैया तर्क देता है ,’ मैं बालक बहियन को छोटो ,छींको केहि विधि पायो ? छींको माने सीका, माने सिकहर। तो , आज ठाकुर का कोना स्तम्भ में मैं इसी सिकहर के मिस गांवों की लुप्त हो चुकी परम्परागत लोक कलाओं की चर्चा करने जा रहा हूं। बात पहले सिकहर और सिकहर बनाने की कला की । विकास के आधुनिक दौर ने हमारी ऐसी कई ग्रामीण कलाओं को निगल लिया है। तो आइए ,जानते हैं इस सिकहर के बारे में। तब गांव में अधिकांश घर फूस के हुआ करते थे। कुछ कम लोगों का घर ही भित्ती और खपरैल छत का होता था। छप्पर वाले घरों के कमरे और बरामदे पर सिकहर टंगा होता था।उस सिकहर पर दही की मटकी ,अंचार ,निमकी की हांडी , दही की मटकी , आदि घरेलू उपयोग के सामान रखे जाते था। यह सिकहर घरों में जमीन से इतनी ऊंचाई पर टंगा रहता था कि छोटे बच्चे की वहां तक पहुंच नहीं होती थी। तभी तो अपने ऊपर माखन चुराने के आरोप पर कन्हैया ने मां यशोदा को सफाई देते हुए कहा था ,मैं बालक ,बहियन को छोटो ,छीकों केहि विध पायो? खैर। गांव में सिकहर बनाने की विशेष कला थी।इसका निर्माण पटुआ या मूंज की रस्सी से किया जाता था। खास कर चौथचंदा पर्व के अवसर पर हर घर में नया सिकहर जरूरी था ,दही की मटकी रखने के लिए।होता यह था कि चौथचंदा पर्व के लिए नया मटकी और छांछ में दही जमाया जाता था।और ,जब दही पर्व के लिए जमाया गया हो तो उसे सुरक्षित रखने के लिए नया सिकहर जरूरी था। तब गांव में इक्के -दुक्के लोग सिकहर बनाने की कला जानते थे। चौथचंदा पर्व से 8-10 दिन पहले लोग अपने -अपने हाथों में पटुआ या मूंज की रस्सी लिए उनके पास सिकहर बनवाने पहुंच जाते थे। यह काम पूरी तरह नि: शुल्क था। एक खास लम्बाई में रस्सी को काटा जाता और उसे चार भाग में कलात्मक ढंग से मोड़ कर जगह-जगह गांठ लगाकर सिकहर तैयार किया जाता था।फिर उस आदमी को इस हिदायत के साथ सिकहर दे दिया जाता कि उसे छप्पर से टांगते समय उसका चारों डोरी बराब रहूं । चौथचंदा में हर साल नया सिकहर बनवाया जाता तो ऐसेमें स्वाभाविक था कि घरों में ढेर सारे सिकहर पाऊं जाते थे। अब जब वह समय ही नहीं रहा तो सिकहर की बात भी बेमानी हो गई है। गांवों में पक्का मकान बन गये। वहां अब सिकहर टांगने की गुंजाइश ही नहीं बची।वैसे भी सिकहर अब पिछड़ेपन की पहचान बन चुकी है। गांव में हस्त शिल्प कला की समृद्ध परम्परा थी। गांव के लोग अपनी दैनिक जरूरत की अधिकांश चीजें जैसे , टोकड़ी बुनना ,खटिया बुनना ,कुश या खजूर के पत्ते से चटाई बनाना ,मवेशियों के लिए पटुआ का नाथ , गरदान ,रस्सी , अनाज रखने वाली माटी की कोठी , पर्व -त्योहार सहित साल भर काम चलाने लायक माटी का चुल्हा भी महिलाएं खुद बनाती थीं। तब ‘मंगरी माटी ,बुधिया चुल्ही की कहावत गांव में आम थी। चैत महीना के शुक्ल पक्ष में एक खास मंगलवार को खेत से माटी लायी जाती और अगले बुधवार को चुल्हा का पट्टा ठोकने की परम्परा थी। अब तो गांव में इक्के -दुक्के महिलाएं ही पर्व त्योहारों पर माटी का चुल्हा बनाती है और लोग उसे खरीदते हैं। मवेशी के लिए प्लास्टिक वाली रस्सी और चटाई की जगह प्लास्टिक के तिरपाल ने ले ली। आधुनिकता के इस दौर में ग्रामीण हस्त शिल्प कला ने दम तोड दिया । हमारी अधिकांश जरूरतें अब बाजार के हवाले हो चुकी हैं।

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