आप योग करिए, हमें भोग करने दीजिए

वर्ग विभाजित समाज में अन्य चीजों की तरह योग की भी वर्गीय अवधारणा है।

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ब्रह्मानंद ठाकुर

इन दिनों चारों तरफ योग की हवा चल रही है। जिधर देखिए,जिसे देखिए योग और प्राणायाम में मशगूल।कोई अपने घरों में अनुलोम -विलोम, कपालभाति, भस्त्रिका, शवासन, पद्मासन, भुजंगासन, शीर्षासन में व्यस्त तो कोई सामूहिक योगाभ्यास करने सुबह-सबेरे खुले मैदान की ओर सरपट भागा जा रहा है। यह कमाल है इन्टरनेट, सोशल मीडिया और अखबारों में योग के फायदे गिनाने वाले विज्ञापनों का। इस बाजारवादी व्यवस्था को फलने-फूलने का अवसर प्रदान करने में ऐसे विज्ञापनों की बड़ी भूमिका होती है। विज्ञापन उपभोक्ताओं को हिप्टोनाइज कर देते हैं और उपभोक्ता अपना इच्छित उत्पाद हासिल करने बाजार की ओर दौड़ पड़ता है। विज्ञापन परोसने के साधन हर घर में टीवी और हर हाथ में एनड्रायड मोबाइल तो है ही। योग भी इन दिनों विज्ञापन के बल पर ही लोकप्रिय हो रहा है। इतना लोकप्रिय कि आजकल हर गांव और कस्बे में योग शिविर आयोजित होने लगे हैं। प्रशिक्षक ऐसे शिविरों में लोगों को घंटे, दो घंटे का योग सिखाते हैं। योग को भारतीय संस्कृति का एक अंग माना गया है। इसके भेद बताए गये हैं – कर्मयोग,भक्तियोग, राज योग और ज्ञान योग। कर्म योग सबसे बड़ा योग है। कर्मण्येवाधिकारस्ते। लेकिन चिंता तब होती है ,जब हमारे तमाम उन्नत आदर्श और मान्यताएं बाजारवाद की गिरफ्त में आ जाती हैं। आज यह योग भी बाजारवाद की गिरफ्त में है। यह खाए-अघाए लोगों की फितरत बन चुका है। खूब पौष्टिक खाना खाकर शरीर में चर्बी बढ़ा लीजिए और फिर उसे घटाने के लिए योग का सहारा लीजिए। वर्ग विभाजित समाज में अन्य चीजों की तरह योग की भी वर्गीय अवधारणा है। हम मिहनतकश लोग हैं जनाब! सुबह से शाम तक खेत -खलिहान और कल -कारखाने में ईमानदारी से खटते हैं।खुरपी -कुदाल चलाते हैं। अपने मवेशियों के लिए चाराकल पर कुट्टी काटते हैं।नाद में एक टोकरी भूसा और दो बाल्टी पानी रख झुक कर दोनों हाथ से पानी – और भूसा को बार- बार मिलाते हैं। एक दिन के लिए भी कभी कर पाइएगा ऐसा? इतनी मिहनत से पाली गई गाय जब दूध देती है तो उसे खा -पीकर आपकी चर्बी बढ जाती है। फिर उसे घटाने के लिए उठम -बैठक और योग का सहारा तो लेना ही पड़ेगा न ? कभी मछुआरे को मछली पकड़ने के लिए किसी तालाब या नदी में जाल फेंकते और उसे बाहर खींचते देखा है ? नहीं देखा होगा । आपको तो सिर्फ मछली खाने से मतलब है। बड़ी मशक्कत होती है साहब जाल फेंकने और फिर उसे बाहर खींचने में। बहुत ताकत लगती है। इतनी कि सांसें फूलने लगती हैं।बिना कपालभाती किए। आप इस वर्ग विभाजित समाज का क्रीम हैं। भोग करना आपका अधिकार है और योग आपकी मजबूरी। आप करते रहिए योग। हो सकता है कि इससे आपकी उम्र में कुछ साल का इजाफा हो जाए। हम तो मिहनतकश लोग हैं।प्रकृति की निश्च्छल गोद में खेलने-खटने वाले मिहनतकश लोग। हमें तो भोग करने दीजिए। ‘ कोदो सवां जुरितौ भर पेट, नहि चाहत हौं दधि, दूध मिठौती ‘। कम से कम इसमें बाधक तो नहीं बनिए।

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