विजयादशमी पर बाबासाहेब क्यूँ नहीं याद आए?

14 अक्टूबर 1956 को देश विवश था हिन्दू समाज के विभाजन का हादसा झेलने के लिए

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बाबा विजयेन्द्र

14 अक्टूबर को हमने दशहरा की थकान मिटाने में ही गुज़ार दी। देश ने इस बार भी धूमधाम से विजयादशमी का उत्सव मनाया। शुभकामनाओं के मीम्स और रील्स स्क्रीन पर तैरते रहे। इन शोर शराबों के बीच इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण तिथि ’14 अक्टूबर’ बिना कुछ बताये चुपके से गुजर गयी। मेरी चेतना रुक-रुक कर इस तिथि को निहारती रही। स्मृति का छोड़ पकड़े मैं 14 अक्टूबर 1956 तक पहुँच जाता हूँ। 14 अक्टूबर 1956 का वह दिन था दशहरा का। शहर था नागपुर।
इसी नागपुर में संघ की स्थापना हुई थी। इस समय यानी 1956 को संघ युवा हो चुका था। इक्कतीस साल की आयु हो चुकी थी संघ की। ‘भारत हिन्दू राष्ट्र है’ की आवाज इसी नागपुर से निकली। हिन्दू और मुसलमान के बीच के तकरार ने इतना बड़ा दरार पैदा किया कि देश अखंड नहीं रह पाया। विभाजन का ज़ख्म हरा ही था। आँसू सूखे नहीं थे। कब्रिस्तान की मिट्टी भी सुखी नहीं थी। चिता की आग ठंडी नहीं हुई थी। विभाजन के बाद की हिंसा जारी थी।
इसी बीच देश एक और हादसा झेलने को विवश था वह हादसा था बाबा साहेब के धर्म परिवर्तन का। हिन्दू समाज के विभाजन का। इसी 14 अक्टूबर 1956 को अपने 365000 सहयोगियों और अनुआयियों के साथ बाबासाहेब ने हिन्दू धर्म का परित्याग किया और बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। आज यह दीक्षा भूमि के रूप में ख्यात है।
संघ की शिक्षाभूमि और यह बाबा साहेब की यह दीक्षाभूमि! यह तिथि साक्षी बनी थी उस हालात की जब नागपुर से उठी हिन्दू एकता की आवाज नागपुर में ही दफ़न हो रही थी। यह विडम्बना ही थी इतिहास की। बाबासाहेब ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि हिन्दू होकर अवश्य पैदा हुआ हूँ लेकिन हिन्दू होकर मरूंगा नहीं। बहुत बेचैनी थी बाबा साहेब के पास धर्मत्याग की। इस्लाम और ईसाई दो धर्म सामने थे।
इस्लाम बंद गलियों का धर्म था। आगे का रास्ता बंद था। इसके इतर तात्कालिन परिस्थितियां भी बाबासाहेब को इस्लाम के निकट नहीं आने दिया। विभाजन के दौरान बड़े पैमाने पर पाकिस्तान में दलित मारे जा रहे थे। मुसलमान दलितों के हितैसी नहीं थे। बार-बार बाबासाहेब ने नेहरू से आग्रह किया था पाकिस्तान से दलितों को बचा लेने का।
इसलिए बाबा साहेब इस्लाम से दूर हो गए। ईसाई धर्म भी बाबासाहेब को आकर्षित नहीं किया क्योंकि इनके शोषण का किस्सा भी बाबासाहेब पढ़ चुके थे। नस्लभेद और रंगभेद जैसे कलंक ईसाईयत के माथे पर लगा था। इस कारण बाबासाहेब चर्च की घंटी बजाने से अपने को रोक लिया। सिख होने से भी अपने को रोका। यहां भी भेद थे। दूसरी तरह सिख, हिन्दू धर्म का ही हिस्सा दिखे। सिख कौम की बहुत सारी दृष्टियां हिंदुत्व के करीब थी। अम्बेडकर मुक्ति के मुक़्क़मल मार्ग की खोज में थे। आखिरकार भारत की मिट्टी में ही पला बढ़ा धर्म, बौद्ध धर्म को अपनाया। बौद्ध धर्म को भी वे हूबहू स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे। बौद्ध धर्म को समझने में भी इन्होने कई दशक लगा दिया।
आखिरकार इस तिथि को उत्तर प्रदेश के रहने वाले वयोवृद्ध सन्यासी भिखु चंद्रमणि बाबासाहेब को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी।
संघ उधर विजयादशमी का उत्सव मना रहा था और इधर हिन्दू धर्म का त्याग हो रहा था। बुद्ध के सामने अम्बेडकर ने सफ़ेद कमल का फूल रखकर स्वयं को बौद्ध धर्म को समर्पित किया।
आज वह सफ़ेद कमल हमारे सामने नहीं है। हमारे सामने आज लाल कमल है। कभी-कभी मैं मोदीजी के कोर्ट में सफ़ेद कमल देखता हूँ?
लेकिन यह सफ़ेद कमल बुद्ध के संघ के लिए नहीं है, बल्कि हेडगेवार के संघ के लिए है। आज सत्ता में दलित पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी है। दलित को अब अपना प्रतिविम्ब इसी संघ में दिखाई दे रहा है? बहुजन राजनीति आज बीजेपी की गोद में पल बढ़ रही है। बावजूद दीक्षा भूमि के वे सवाल आज भी मौजूद हैं। शोषण के औजार केवल बदल गए हैं, पर चरित्र नहीं बदला है समाज का। 14 अक्टूबर 1956 आज भी संघ को रह-रह कर भयभीत करता है। संघ आज इस तिथि पर मौन है। संघ नहीं चाहता है कि इस तिथि को कोई याद करे! संघ प्रमुख के बयान ही विजयादशमी को अपनी प्रभाव में रखते हैं ताकि इस तिथि को कोई भूल से भी याद न कर ले?

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