कौन सुनेगा गौनौर भाई की?
गोनौर भाई दलित हैं।गांव में रहते हैं। शहर का रुख कभी किया नहीं , अब क्या खाक करेंगे ! उम्र करीब 65 साल है। इस उमिर में भी मिहनत-मजूरी करते हैं। पुश्तैनी जमीन घरारी समेत 6 कट्ठा है। दो भाई थे।बड़ा भाई भरी जवानी में चल बसा। जमीन का आपसी बंटवारा हो चुका है। गोनौर भाई पुश्तैनी जमीन का अपने और भतीजे के बीच कागजी बंटवारा कर भविष्य के झंझट से मुक्त हो जाना चाहते हैं।पुश्तैनी जमीन है तो उसका खतियान भी है। खतियान गौनौर भाई के पिता के नाम से है।उस खतियान पर पिता के पिता का नाम नहीं लिखा हुआ है। बस मामला यहीं उलझता है। जब खतियान बन रहा था तब गोनौर भाई की उम्र 5-7 साल रही होगी। पिता निपट अनाड़ी। खतियान बनाने वाले हाकिम ने कर दी होगी गलती ! इसमें गोनौर भाई की क्या ग़लती ? मगर भुगतना उन्हीं को पड़ रहा है। कुल 27 डिसमिल जमीन में 7 डिसमिल का रसीद कट रहा है। शेष 20 डिसमिल जमीन को राजस्व कर्मचारी गोनौर भाई के पिता की जमीन इसलिए नहीं मान रहा है कि उसमें उनके पिता के पिता का नाम नहीं है। अब गोनौर भाई कैसे साबित करें कि खतियान में जो नाम है ,वही उनके पिता हैं।गोनौर भाई को इसके लिए खतियान और जमाबंदी पंजी में सुधार करवाना है।इसे परिमार्जन कहते हैं। परिमार्जन का काम गोनौर भाई के लिए टेढ़ी खीर है। इनको अंचल और प्रखंड कार्यालय तो पता है लेकिन इसके अफसर और बाबू के बारे में कुछ भी पता नहीं है।कहां जाएं और किससे कहें अपने मन की बात ? हमारे आधुनिक राष्ट्र निर्माता तो अक्सर रेडियो और टीवी से अपने ‘मन की बात’ कहते ही रहते हैं।यहां सवाल जन के मन की बात से है। गोनौर भाई जमीन के खतियान में अपने पिता के पिता का नाम जुड़वाने के लिए साल भर से द्वारे -द्वारे घूम रहे हैं।समस्या का समाधान अबतक नहीं हुआ है। ऐसे एक नहीं ,अनेक गोनौर भाई हैं जिनका दर्द न तो मीडिया में खबर बन पाता है न साहित्य लेखन का विषय। हिंदी के एक बड़े नामी -गिरामी लेखक हो चुके हैं।सरकारी नौकरी में बड़े पद से सेवानिवृत्त होने के बाद एक किताब लिखी।वह किताब आजाद भारत की आजादी के बाद की बड़ी जीवंत तस्वीर पाठकों के सामने पेश करती है। इस पुस्तक में एक ऐसे पात्र का उल्लेख है जिस पर गांधी के विचारों का प्रभाव है।उसे बासगीत पर्चा चाहिए , मगर इसके लिए उसे रिश्वत देना कतई गवारा नहीं। वह बासगीत पर्चा के लिए दफ्तर दौड़ते – दौड़ते थक जाता है। चूंकि दफ्तर के बाबू को उसने रिश्वत नहीं दिया इसलिए उसे बासगीत का पर्चा नहीं मिला। गोनौर भाई की समस्या भी कुछ ऐसी ही है। ऐसे ही लोगों के कल्याण के लिए इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में त्रिस्तरीय पंचायत प्रतिनिधियों से लेकर विधायक और सांसद चुने जाते हैं।अपेक्षा यह रहती है कि ये प्रतिनिधि अपने क्षेत्र की जनता की समस्याओं का समाधान प्राथमिकता से करेंगे। जबकि जमीनी सच्चाई कुछ और होती है। दलितों ,महादलितों के कल्याण और विकास की बातें करने वाले नेताओं की एक लम्बी फेहरिस्त है। इसमें ‘गोल्डेन’ से लेकर टिनही नेता भी हैं जिनके अपने अपने राम हैं।ऐसे में गोनौर राम जैसों की कौन पूछे ?