श्रम की प्रतिष्ठा का अनुष्ठान है विश्वकर्मा पूजा
श्रम से ही सभ्यता का निर्माण हुआ और अब भी हो रहा है
श्रम सभ्यता का मूल है।श्रम से ही सभ्यता का निर्माण हुआ और अब भी हो रहा है। आदि मानव जंगलों और पहाड़ों की गुफाओं में रहता था। ऐसे ही दौर में उसे ज्वालामुखी और दावानल की आग से परिचय हुआ। इस आग का भयानक रूप देख आदि मानव जरूर डर गया होगा। डर या खतरा तो उसे जंगली हिंसक जानवरों से भी थी।फिर भी उसने हार नहीं मानी।जलते हुए लकड़ी के एक टुकड़े से दूसरी जगह रखी सूखी लकड़ियों में आग जला कर उसने आग पर विजय प्राप्त की। कल तक जिस जंगली हिंसक जानवरों को देख उसकी रूह कांप जाती थी ,अब आग की धधकती ज्वाला को देख वे जानवर डर कर दूर भागने लगे। इस तरह नूतन सभ्यता के सृजन में आदि मानव एक कदम आगे बढ़ा। लकड़ियों में जलती आग और अपने दिल के अंदर की जिज्ञासा को उसने कभी थमने नहीं दिया। फिर जंगलों को जलाकर खेत बनाए।कृषि का विकास हुआ।सभ्यता की डगर पर आदि मानव के कदम दर कदम बढ़ते रहे ,बढ़ते रहे। इसमें कोई देव या अदृश्य शक्ति उसका मददगार नहीं था। मददगार थी तो केवल उसकी जिजिविषा। आग का आविष्कार उस समय का पहला क्रांतिकारी परिवर्तन था। फिर पहिए का आविष्कार हुआ। वह पहला वैज्ञानिक था जिसने पहिए का आविष्कार किया। पहिए के आविष्कार ने न केवल आवागमन को आसान बनाया बल्कि इसी से कालांतर में मिट्टी के बर्तनों का निर्माण हुआ। ‘कर तल भिक्षा ,तरुतल वास ‘ की स्थिति समाप्त हुई। पाषाण युग से लौह युग , ताम्र युग का सफर तय करते हुए हम यहां तक पहुंचे हैं।इसके मूल में श्रम का ही योगदान है। श्रम के बिना इस भौतिक जगत में कुछ भी सृजन सम्भव नहीं है। श्रम चाहे मनुष्य का हो या यंत्रों का।यंत्र भी तो मानव निर्मित ही है।
विश्वकर्मा को श्रम का देवता माना गया है। उन्हें सृजन, निर्माण, वास्तुकला, मूर्तिकला, शिल्पकला, विभिन्न औजारों , और वाहनों का अधिष्ठाता कहा जाता है।कहा तो यह भी जाता है कि सतयुग में स्वर्गलोक ,त्रेता में सोने की लंका ,द्वापर में द्वारिका और कलियुग के प्रथम चरण में इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर का निर्माण इसी विश्वकर्मा ने किया। यह भी कि कृष्ण के आदेश पर विश्वकर्मा ने रातों रात सुदामा के लिए द्वारिका की तरह ही एक भव्य महल तैयार कर दिया था। यह तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सम्भव नहीं लगता। किसी भी तरह के निर्माण या उत्पादन के लिए श्रम आवश्यक है। यहां तक कि पूंजी भी श्रम का ही उत्पाद है। लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने पूंजी को प्राथमिकता देते हुए श्रम को दोयम स्थान पर ला दिया है। कहने के लिए ‘ श्रमेव जयते ‘ भले ही है लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं है। श्रम का सामाजिक महत्व होता है। लेकिन आज श्रमिकों को समाज में या उनके नियोजन संस्थानों में वह स्थान नहीं मिल रहा है ,जिसके वे वास्तविक हकदार हैं। उनके श्रम की चोरी लगातार बढ़ती जा रही है। श्रम की इसी चोरी से पूंजीपति दिन प्रतिदिन माला माल और श्रमिक कंगाल होते जा रहे हैं। कारखानों में उनपर छंटनी और तालाबंदी की तलवार हमेशा लटकी ही रहती है। इस पूंजीवादी व्यवस्था के संचालक तथा कथित लोकतांत्रिक सरकारें श्रम और श्रमिक विरोधी कानून बना कर अपने आका पूंजीपतियों के हित में श्रमिकों के हितों पर लगातार कुठाराघात कर रहे हैं। आज के बदलते परिवेश में विश्वकर्मा पूजा का उद्देश्य ‘भगवान विश्वकर्मा ‘की मूर्ति बना कर उनकी पूजा करना नहीं बल्कि हर तरह के सृजन और निर्माण के लिए समर्पित श्रमिकों के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्हें उनका वाजिब हक दिलाने के लिए आवाज बुलन्द करना होना चाहिए।