बाबा विजयेन्द्र
अभी-अभी मैं गांव से ही लौटा हूँ। आज सुबह ही गांव की ओर निकल गया था। यह प्रयास मेरे दैनंदिनी का हिस्सा हो चुका है। ऑनस्क्रीन गांव की बदहाली पर अक्सर मैं बोलता रहता हूँ। गांव हमारे चिंतन के केंद्र में बना हुआ है। गांव भारत की बुनियाद है। इस बुनियाद के हिलने का मतलब है इस देश का हिल जाना। भारत की थाती हमारा गांव ही है। इस गांव ने ही भारत को कभी सोने की चिड़ियाँ बनाया होगा। गुरु, गांव के ही थे। कोई एक गुरुग्राम नहीं बल्कि यहाँ के सारे गांव गुरु गांव ही थे। गुरुओं की ही अभिव्यक्ति थे हमारे गांव। गांव के हाथों में धर्म ध्वजा था। हजारों वर्षों तक सभ्यता और संस्कृति को आगे तक ले जाने के लिए गांव ने ही अपना कन्धा लगाया? भारत को समझने का अर्थ है भारत के गांव को समझना। हस्ती मिटती नहीं हमारी ! वह हस्ती हमारा गांव ही है। मेरे दिमाग और कदम साथ-साथ चल रहे थे। गांव तक जाने वाली पक्की सड़क गांव तक पहुँचने में रफ़्तार दे रही थी। गांव के बाहर शहीद के नाम पर एक द्वार है। उस शहीद को सलामी देते मेरी गाड़ी आगे बढ़ती है। सब कुछ बदल रहा है। बदलाव को हम रोक नहीं सकते। बदलाव प्रकृति का नियम है। बदलाव बेहतरी की तरफ ले जाता है। बदलाव का अर्थ विनाश नहीं है। दिशाहीन बदलाव हमारे लिए घातक है। इच्छा है इस विरासत को बचा लेने की। देश के सामने जो मौजूदा प्रश्न हैं इनके अधिकाँश उत्तर आज भी हमारे गांवों के पास है। हमारे पास जो कुछ भी बचा हुआ है उसे बचाते हुए आगे बढ़ने की तैयारी ही अभीष्ट है। विचारों के इस प्रवाह को मुझे रोकना था। गांव पहुँच गया था। रूककर किसी से बात करनी थी।
बदला हुआ गांव हमारे सामने था ? इस गांव की गलियां पक्की हो गयी हैं। झोपड़ियां अब कहीं नजर नहीं आती। एकाध नजर भी आती है तो उसमें गाय और भैंस बंधी हैं। गाय, भैंस और बकरियां भी दूर हो गयी हैं गांव से। गायें तो कहीं नजर ही नहीं आयी। गांव में गाय नहीं हो गांव की कल्पना नहीं की जा सकती। पर हकीकत तो हकीकत है। हर प्रकार की यहाँ दुश्वारियां हैं। मुलाक़ात होती है मिंटू प्रधान से। प्रधान उत्साही है पर इन्हें विकास के नाम पर कुछ मिलता नहीं है। लोगों की अपेक्षा रहती है अपने प्रधान से। पर प्रधान परेशान हैं यह कब तक चलेगा? गांव शहर जाना चाहता है या फिर शहर होना चाहता है। गांव अपना हो या पराया,अहसास अब एक जैसा ही है। गांव अच्छा भी लगता है,पर गांव जाने का या वहां रुकने का जी भी नहीं करता। गोबर की गंध डराती है। गन्दी गलियां भयभीत करती हैं। आप इसे डाइसोपोरा कह सकते हैं। कोई भी गांव अब अपनेपन का अहसास नहीं कराता। दालान अकेलेपन का शिकार है।
यह कहानी गांव-गांव की है। छांव पीपल के यहाँ नहीं हैं बल्कि किसी अन्य झाड़ीदार वृक्ष की ख़ामोशी है। गांव पहुंचकर कदम रोक लिया मैंने ताकि गांवों की भूली-बिसरी यादें जिन्दा हो जाय। भारत के हर गांव की स्थिति एक जैसी ही है। ऊंची इमारतें यहाँ भी नजर आयी, पर वह गांव नजर नहीं आया जिसकी कल्पना की जाती है। बंद दरवाजे के मकान यहाँ भी? कोई खुला दरवाजा नहीं मिला मुझे। गलियां सूनी हैं। गांव का चौपाल उजड़ा हुआ है। पलायन की परछाई साफ़ दिखाई देती है। गांव बेजुबान है। इनके मुँह पर ताले लटके हुए हैं। सन्नाटों से संवाद करते मैं आगे बढ़ता हूँ। किससे पूछूं कि इतना सन्नाटा क्यों है भाई? कहाँ गए होंगे गांव के लोग? प्रश्न बेमतलब के नहीं थे ? बावजूद उत्तर की तलाश में बहती नालियों से कूदते-फांदते आगे बढ़ जाता हूँ। किनसे बात की जाय? कदम आगे बढ़ता है। बगल के खेतों से लरजते धान की खुशबू नथूनों में उतर गयी। बस मिले न खुशबू यह दुबारा। यात्रा खुशबू से महक उठी। कितना जज्बाती हो रहा था मैं। कुछ लोगों से बात करने की मेरी इच्छा हुई। सुख-दुःख, गांव में इनके रहने के अहसासों से सरोकार स्थापित करना चाहा। पर किससे बात करता? लड़खड़ाते गांव की लड़खड़ाती आवाज़ थी।
कुछ मर्द बग्गी वाले जिस पर लदी हुई घास के बंडल थे, सामने आये। उन्हें रोका पर वे नशे में धुत्त थे। नशे में थे पर वे अपने ही घर जा रहे थे? उन्हें राम-राम कहा, पर गांव से हे राम ! की प्रतिध्वनियां ही सुनाई दी। दरवाजे पर खांसते हुए कुछ वृद्ध दिख जाते हैं। इनकी पथराई आँखों में यादों की परछाई है। इंतज़ार है अपनों के साथ होने का और साथ रहने का। अतिथि भी गांव का रास्ता भूल गए हैं। कुछ दरवाजों पर भीड़ खड़ी नजर आती है। शायद श्रद्धांजली देने वालों की भीड़ रही होगी। मिलना-जुलना बाहर ही नजर आता है। किसी फ़ार्म हाउस या किसी धर्मशाला में। यहाँ भी किसी से कोई बात करता नज़र नहीं आता। औपचारिकता पूरी कर कुछ ही घंटों में भीड़ यहाँ से विदा हो लेती है। जबकि सामाजिकता का पर्याय थे हमारे गांव। एक गहरी सामूहिकता थी। गांव खामोश ही है। अपने वजूद की लड़ाई लड़ता गांव मेरे सामने है। चर्चा जारी रहेगी। क्या करना है गांव का। कैसे इसे सुन्दर बनाना है ताकि देश सुन्दर बन सके।