डॉ योगेन्द्र
आज दिनकर जयंती है। दिनकर यानी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर।23 सितंबर 1908 को उनका जन्म हुआ। हिन्दी में दो ही राष्ट्रकवि हुए- मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर। जिस विश्वविद्यालय में मैं पढ़ा और पढ़ाया, उसके कुलपति रहे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर। उन्होंने अपना जीवन स्कूल में मास्टरी से शुरू किया। बरबीघा के एक स्कूल में शिक्षक थे। आजादी के बाद लंगट सिंह महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर में हिन्दी के शिक्षक रहे। पंडित नेहरू ने उन्हें राज्य सभा का सदस्य बनाया, लेकिन वे नेहरू के गुलाम नहीं रहे। 1962 में चीन से युद्ध में हार के बाद संसद में नेहरू के खिलाफ खड़े हुए और निम्नलिखित पंक्तियां पढ़ीं –
देखने में देवता सदृश्य लगता है
बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो
समझो उसी ने हमें मारा है॥
पंक्तियां सुन कर नेहरू के सिर झुक गये। उन्होंने दिनकर का विरोध नहीं किया। आज अगर पार्टी का कोई सांसद प्रधानमंत्री का विरोध करे तो सांसद की ऐसी तैसी हो जायेगी।
एक और किस्सा 20 जून 1962 का है। उस दिन दिनकर राज्यसभा में खड़े हुए और हिंदी के अपमान को लेकर बहुत सख्त स्वर में बोले। “देश में जब भी हिन्दी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिन्दी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है। पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिन्दी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिन्दीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाएँ? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा?”
यह सुनकर पूरी सभा सन्न रह गई। ठसाठस भरी सभा में भी गहरा सन्नाटा छा गया। यह मुर्दा, चुप्पी तोड़ते हुए दिनकर ने फिर कहा- ‘मैं इस सभा और खासकर प्रधानमन्त्री नेहरू से कहना चाहता हूँ कि हिन्दी की निन्दा करना बन्द किया जाए। हिन्दी की निन्दा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहुँचती है।’
दिनकर ओज के कवि तो थे ही, श्रृंगार के कवि भी रहे। उन्होंने रेणुका, हुंकार, कुरुक्षेत्र, परशुराम की प्रतीक्षा, रश्मिरथी जैसी कृतियां रचीं, तो उर्वशी जैसी कालजयी कृति भी। उर्वशी पर तो ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। ‘ संस्कृति के चार अध्याय ‘ जैसी वैचारिक पुस्तक को कौन भूलेगा? वे बारह वर्ष सांसद रहे। वे कुलपति बनना चाहते थे और संसद से इस्तीफा देकर 1965 में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने। महज एक साल कुलपति रहे। शैक्षिक वातावरण से उन्हें घोर निराशा हुई। भागलपुर में वे परेशान रहे। मधुमेह और ब्लड प्रेशर काफी बढ़ गया और उन्होंने इस पद से इस्तीफा दिया। कुलाधिपति इसे स्वीकृत नहीं कर रहे थे तो दिनकर बोरिया बिस्तर बांध कर पटना चले गए। इसके बाद भारत सरकार में 1965 से 1971 तक हिन्दी सलाहकार पद पर रहे।