असली धर्म तोड़ता नहीं, जोड़ता है
साईं बाबा की मूर्ति को मंदिरों से हटाए जाने की घटना को इसी परिपेक्ष्य में देखने-समझने की जरूरत
ब्रह्मानंद ठाकुर
धर्म की अनेक परिभाषाएं हैं। इसे मानव हृदय की उदात्त और पवित्र भावना बताते हुए सेवा, सहानुभूति और परोपकार के लिए खुद को समर्पित करना कहा गया है। वैदिक ऋषियों ने सृष्टि और समस्त प्राणियों के हितों के लिए किए जाने वाले सभी कर्मों को धर्म की संज्ञा दी है। धर्म की यही परिभाषा उचित भी है।
धर्म का यही रूप हर युग में मनुष्य के लिए उसका कर्तव्य निर्धारित करने वाला है। इससे स्पष्ट है कि समय बदलने के साथ ही धर्म का रूप भी बदलता है। लेकिन इस बदलाव में उसके लोक कल्याणकारी भावना का लोप नहीं होता। लोक कल्याण के रास्ते जरूर बदल जाते हैं। यही वैज्ञानिक और वस्तुगत नियम भी है। इस सम्बंध में मैं इतिहास की कतिपय घटनाओं का जिक्र करना चाहूंगा। कभी बुद्ध और महावीर ने धर्म के इसी तत्व को ग्रहण कर अपने समय में लोक कल्याण का काम किया था। उन्हें भी विरोध झेलना पड़ा था।
जब यूरोपियन सभ्यता बर्बरता की बाढ में डूब रही थी, तब उसे आंशिक रूप से ही बचाने का काम ईसाई धर्म ने किया था। रोमन सभ्यता और संस्कृति ईसाई धर्म की छाया में ही बच पाई थी। लुप्त हो रहे ज्ञान-विज्ञान को तब इसी धर्म ने बचाया था। ईसाई धर्म के प्रतिष्ठानों ने ही यूरोप के अंधकार युग में शिक्षा का दीप जलाया था। दास युग में अत्याचारी मालिकों के खिलाफ अत्याचार पीड़ित दासों की मुक्ति के आह्वान के साथ समाज में धार्मिक चिंतन का आगमन हुआ।
धर्म गुरुओं ने तब मानव कल्याण के लिए अपनी प्रगतिशील भूमिका का निर्वाह करते हुए दासों एवं मालिकों में न्याय-अन्याय का बोध पैदा किया। इसके लिए अनेक धर्म गुरुओं को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी थी। फिर धर्म आधारित शासन के वादे पर दास प्रथा की जगह राजतंत्र की स्थापना हुई। राजतंत्र में भी धर्म को प्रजा के उत्पीड़न, भू-दासो पर अत्याचार एवं शोषण के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया गया। समय ठहरता कब है? वह आगे सरकता रहा। ऐसे में ही पूंजीवाद का उदय हुआ। समता, स्वतंत्रता और आपसी भाईचारे के नारे के साथ एक नई समाज व्यवस्था कायम की गई। ऐसा करते हुए धर्म ने समाज के प्रति अपना ऐतिहासिक और प्रगतिशील चरित्र बनाए रखा। हमें याद रखने की जरूरत है कि समाज में एकात्म भाव पैदा करने में विभिन्न धर्मगुरुओं और सूफी संतों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज इसी एकात्म भाव का लोप हो गया है। यह अकारण नहीं है। कोई भी समाज व्यवस्था चिरस्थाई नहीं होती। यही इतिहास सम्मत, वैज्ञानिक और प्राकृतिक नियम है। कालांतर में पूंजीवाद ने भी अपना प्रगतिशील चरित्र त्याग दिया। वह अपने ही द्वारा स्थापित आदर्शों का आज गला घोंटा रहा है। धर्म आज अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष के बजाय अत्याचारियों का ही सहयोगी बन गया। समाज में शोषण, जुल्म, अन्याय, अत्याचार चरम पर है। ऐसे में कोई भी धर्म इसके विरोध में आवाज उठाने को तैयार नहीं। अधिकांश धार्मिक संस्थान और उसके धर्म गुरु करोड़ों-अरबों के मालिक बने हुए, शान-शौकत की जिंदगी जी रहे हैं। वहां भी भ्रष्टाचार, कदाचार चरम पर है। सभी अपने धर्म को एक-दूसरे से श्रेष्ठ बताने की होड़ में लगे हुए हैं। धर्म का लोक कल्याणकारी पक्ष गायब है। कर्मकांडों की प्रधानता हो गई है।
साईं बाबा की मूर्ति को मंदिरों से हटाए जाने की घटना को इसी परिपेक्ष्य में देखने-समझने की जरूरत है। यह धर्म के मूल तत्व से आम-आवाम का ध्यान हटाने का एक कुत्सित प्रयास है। जरूरत है वैदिक ऋषियों द्वारा बताए गये धर्म के मूल तत्वों को समझते हुए वर्तमान स्थिति में उसकी भूमिका तय करने की। तभी हम नई और प्रगतिशील सांस्कृतिक चेतना, मूल्यबोध और ऊंची नैतिकता से लैस होकर एक नये समाज का निर्माण कर पाएंगे जहां न कोई छोटा होगा न कोई बड़ा। क्योंकि धर्म व्यक्ति को तोड़ता नहीं, जोड़ता है। यह काम तो अपने वर्ग हित में राजसत्ता करती है।
Brahmanand Thakur
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)