डॉ योगेन्द्र
शहर में साँझ उतरने का अहसास बहुत कम होता है। मैंने उतरती साँझ को क़रीब से महसूस किया है। जब गाँव में था, तो पिता बूंट ( चना) की रखवाली के लिए खेतों पर भेजते थे। होता यह था कि बूंट जब पकने को होता तो साँझ के समय झूंड के झूंड सुग्गे खेतों में उतर आते और बूंट की छीमियों को अपनी लाल चोंच से टूंगते। मैं भी अधमने खेतों पर जाता। उस वक़्त साथी संगाती के साथ खेलने का मन करता, लेकिन कोई चारा न था। मैं खेत पर जाता और आर (अड्डे) पर बैठ कर सुग्गे को उड़ाते रहता। केवाल मिट्टी वैसे भी बहुत सक्त होती है। मिट्टी के ढेले की कोई कमी नहीं होती। मैं अकेले वहाँ क्या करता? या तो हरे सुग्गे का इंतज़ार करता या प्रकृति को निहारता। बरबस नज़रें दूर क्षितिज तक जाती, फिर ज़मीन पर उगे बबूल, ताड़ और पीपल को देखता। खेतों में फैले बूंट, खेसारी, तीसी के पौधे। इस बीच महसूस करता कि सांझ की एक परत हल्के से आयी है- साँवली सी, हवा में लिपटी।वह धीरे-धीरे गहराती और अंधेरे की ओर साँझ बढ़ती जाती। मैं तो अंधेरे का इंतज़ार ही करते रहता कि वह गहराये तो खेतों से मुक्ति मिले।
शहर में आकर सांझ का यह अहसास खो गया। यहाँ या तो दिन या रात। अंधेरा या उजाला। बिजली के लट्टुओं ने सांझ के सौंदर्य को ख़त्म ही कर दिया है। अक्टूबर बीत रहा है। दुर्गा पूरे ताम झाम के साथ बैठ गयी है। गलियों से सड़क पर जाने के बाद सजावट ध्यान खींचती है। बड़े-बड़े पंडाल मनुष्य के अहंकार को तुष्ट करते हैं। पंडितों ने घोषणा की है कि दुर्गा हाथी पर आयी है, मुर्ग़े पर जायेगी। मुर्गा दक्षिण एशिया से आया है। हाथी तो ख़ैर ठीक है, मगर मुर्ग़ा बेचारा कैसे सहेगा? वैसे इसकी। ज़्यादा चर्चा नहीं करनी चाहिए। यह समस्या किसी कैबिनेट के फ़ैसले का इंतज़ार नहीं करती। हर वर्ष आती है। पंडित इसे विभिन्न रूपों में लाते हैं और अदृश्य को अदृश्य पर बिठा कर विदा करते हैं। आम लोग विश्वास कर लेता है और दुर्गा को हाथी पर आते और मुर्ग़ा पर जाते देख लेता है। कल मैं साँझ को राँची में हिनू में था। हिनू में रजिस्ट्री ऑफिस है। भारी भीड़ थी। ज़मीन लेने और बेचने वाले कार्यालय में क्लर्क पर चढ़े थे। ऑफिस में जो कुछ होता है, वहाँ हो रहा था। मुझे तीन बजे बुलाया गया था। पाँच बज रहा था, लेकिन ‘अभी देर होगी, अभी देर होगी की रट लगी हुई थी। इस बीच बारिश आ गयी। पहले हल्की बूँदें और फिर धारासार बरसा। मैं एक शेड में खड़ा था। गगन गरज रहा था और बरसा धरती पर टूट पड़ी थी।
मोहन राकेश ने ‘आषाढ़ के एक दिन’ नाटक में ऐसी ही धारासार बरसा का वर्णन किया है। मुझे कालिदास और उनकी प्रिया ‘मल्लिका’ की याद हो आयी। घायल हिरण शावक लिए कालिदास और अगाध प्रेम की बारिश करती मल्लिका। जीवन का यह क्षण ही तृप्त करने वाला होता है, वरना जीवन सूखे रेगिस्तान ही तो है! अब ऐसी कृत्रिम मानव बन रहे हैं जिसमें याददाश्त मौजूद है, लेकिन प्रेम की इस पुलक का अहसास शायद उस यंत्र मानव को कभी नहीं होगा। यह अनुभूति बची रहेगी, मानव के पास। शायद इसके साथ मानव होने का अहसास भी बचा रहेगा। कालिदास और मल्लिका की याद के बाद कड़कती बिजली। मध्य में निराला आये -‘झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर! राग-अमर! अम्बर में भर निज रोर! ‘वे आगे रचते हैं-‘झर-झर-झर निर्झर गिरि सर में / घर, मरू , तरू- मर्मर, सागर में / सरित्- तड़ित- गति- चकित पवन में / मन में, विजय गहन कानन में,/ आनन-आनन में, रव-घोर-कठोर-/ राग-अमर ! अम्बर में भर निज रोर! ‘लेकिन शेड के नीचे हालात दूसरे थे। राग अमर अम्बर में गरज रहा था, लेकिन यहाँ न निर्झर था, न गिरि था। ऊँची ऊँची बिल्डिंगों के बीच वृक्ष जरूर थे। और साँझ में आसमान से गिरती बूँदों का अहसास शेष था।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)