आ, अब लौट चलें प्रकृति की गोद में

मानव अस्तित्व के लिए प्राकृतिक संसाधनों को बचाना जरुरी

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ब्रह्मानंद ठाकुर

प्रकृति मां है। वह अपनी संतति को दुलराती है, पुचकारती है, दुखों में सहलाती है, मन बहलाती है। कभी-कभी प्रताड़ना भी देती है एक नटखट शिशु की ममतामयी मां की तरह। लेकिन हम उसके तमाम अवदानों को भूल गये। सिर्फ याद रहीं उसकी झिड़कियां। हमारा यही कुत्सित भाव हमें अपनी ममतामयी मां, प्रकृति की गोद से धीरे-धीरे दूर करता चला गया। हम भूल गये प्रकृति मां की लोड़ियां और थपकियां दे-दे कर हमें चैन की नींद सुलाना। याद रहा बस उसका वह थप्पड़ जो कभी-कभी प्यार से हमारे गाल पर लगा दिया करती थी, हमारा नटखटपना दूर करने के लिए। प्रकृति ने हमें वह सब कुछ तो दिया ही था, जो हर इंसान को इंसानियत के साथ अपना सिर उठाकर चलने योग्य बनाती है।

उसने हमें अपने वृक्षों के मधुर फल दिए।प्यास मिटाने के लिए अपने अंतस्थल का व्यापक जलस्रोत हमारे हवाले किया। शुरुआती दिनों में सुरक्षित पनाह पाने के लिए पहाड़ियों की गुफाएं दीं और भीषण गर्मी से बचने के लिए बड़े-बडे छायादार वृक्ष, कालांतर में जिन्हें काट-काट कर हमने अपना आशियाना बनाया। इसकी भी उसने मनाही नहीं की। उसने औषधीय गुणों से भरपूर नाना प्रकार की वनस्पतियां दीं।उसका उपयोग करना सिखाया। उसके उपयोग से हमें भयानक से भयानक रोगों से छुटकारा मिलता था। उसने कुछ जंगलों को काटकर इस हिदायत के साथ खेत बनाने, उसमें फसल बोने की प्रेरणा दी थी कि अत्यधिक लोभवश हम जंगलों का सफाया ही न कर दें। लेकिन हम कहां समझ पाए उसका इशारा? हमें लोभ ने मदांध जो कर दिया है ! हमने धराधर जंगलों को काटना, पहाड़ों को तोड़ना, नदियों को बांधना और खुद की महत्वाकांक्षा में भूगर्भ जलस्रोतों को प्रदूषित करना शुरू कर दिया। जंगलों को काटने के दौरान जंगली जीवों के उसके वास स्थल से विस्थापन के दर्द ने हमें आहत नहीं किया। हम अपनी मस्ती में चूर रहे। खुद को सर्वशक्तिमान समझने लगे। भूल गये कि प्रकृति माता की सभी संतानों के अस्तित्व से ही हमारा अस्तित्व अभिन्न रूप से जुड़ा है।

हमने स्वच्छंद बहने वाली नदियों पर बांध और बराज बनाए। उसके अविरल प्रवाह को बाधित कर दिया। ऐसा करते हुए तनिक भी ख्याल नहीं किया कि इन्हीं नदियों के तट पर पहली दफा मानव सभ्यता ने अपनी आंखें खोली थीं। एक नई सभ्यता पैदा हुई थी जिसे आज भी सिंधु घाटी की सभ्यता कहा जाता है। जंगलों के विनाश से आदिवासी समुदाय की एक बड़ी आबादी विस्थापित हुई। हम इस पर कभी मर्माहत नहीं हुए। हमने बड़े गर्व से कहना शुरू किया कि प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हुए हम बहुत जल्द दुनिया की तीसरी बड़ी ताकत बनने वाले हैं। यह प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग नहीं, इसका अविवेकपूर्ण दोहन है। लोभवश इन्हीं प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण दोहन के प्रति प्रकृति ने आगाह किया था। कहां मानी गई उसकी सलाह? वह सलाह न मानने का ही परिणाम है कि आज सर्वत्र हाहाकार मचा है। तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। बारिश के मौसम में सूखा। कहीं-कहीं अतिवृष्टि, बाढ़, भू:स्खलन, तापमान में बेतहाशा बढ़ोतरी, जैव विविधता पर संकट, नई-नई बीमारियां, सभी इसी के तो दुष्परिणाम हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारणों एवं इसके दुष्प्रभावों पर गोष्ठियां और सेमिनार आयोजित किए जा रहे हैं। लेकिन इसके लिए जिम्मेवार कारणों पर कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं। ऐसे में गांधी याद आते हैं। उन्होंने कहा था, प्रकृति से इतना ही ग्रहण करो, जितना पा कर तुम जीवित रह सको। गांधी ने न सिर्फ कहा, बल्कि कुछ भी कहने से पहले उसे अपने जीवन में उतारा भी। अपरिग्रह के सिद्धांत पर वे आजीवन कायम रहे। आज बड़े-बडे़ पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों में प्राकृतिक सम्पदा की लूट की होड़ मची हुई है। यह सब लिखते हुए बहुत पहले पढ़ी एक कहानी ‘द इम्पीरियर्स न्यू क्लौथेज’ याद आ गई। कहानी का राजा नंगा था। लेकिन उसकी प्रजा उसके दिव्य वस्त्र की प्रशंसा कर रही थी। एक छोटे बच्चे को राजा का नंगा होना दिखाई पड़ गया। उसने सच्ची बात कह दी थी। आज इसी सच को कहने की जरूरत आन पड़ी है। धरती पर यदि मानव अस्तित्व को बचाना है तो प्राकृतिक संसाधनों को बचाना ही होगा।

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