डॉ योगेन्द्र
रांची से जब चला था, तब तीन बजे दिन का समय था और जब भागलपुर रेलवे स्टेशन पर पांव धरे, तो सुबह के तीन बजकर पंद्रह मिनट हुआ था। अंधेरे का अहसास नहीं हो रहा था, क्योंकि बिजली के अनेक लट्टू जल रहे थे। ई रिक्शा के पास पहुंचने से पूर्व ड्राइवर पास आ गया। हाथ से बैग लेने लगा। मैंने पूछा कि ज्योति विहार का कितना भाड़ा लोगे? दो सौ, उसका उत्तर था। रांची और भागलपुर ट्रेफिक का एक ही हाल है। दोनों जगह मनमाने भाड़े वसूले जाते हैं। रांची से जब चलने लगा तो ओला बुक किया। ड्राइवर ने पूछा कि कहां जाना है? मैंने कहा- रांची रेलवे स्टेशन। उसने कहा कि तीस रुपए अतिरिक्त देने होंगे। मैंने पूछा- क्यों? उसने कहा कि स्टेशन पर तीस रुपए का टिकट काट देता है। मैंने कहा कि ठीक है। तुम सिर्फ अपने मालिक से बात करवा देना कि स्टेशन का तीस रुपए अतिरिक्त देना पड़ता है। उसने आने से इंकार किया। इसी तरह से दो ओला बुकिंग को ड्राइवर ने ही कैंसिल किया। ट्रेन का समय हो रहा था। अंततः अतिरिक्त तीस रुपए देकर आना पड़ा। स्टेशन से ज्योति विहार का एक व्यक्ति का बीस रुपए है। दो थे हम लोग, तो चालीस। रिजर्व है तो चलो दुगुना या तीन गुना।
भारत में पब्लिक दुधारू गाय है। ई रिक्शा वाला तो चलो, निर्धन है। कुछ ज्यादा ले लिया, लेकिन सरकार क्या कर रही है? पहले वेतन या पेंशन पर टैक्स भरो। फिर बैंक से पैसा निकालते वक्त पैसा भरो। बाजार से खाने का सामान, दवा, कपड़े, कुछ भी खरीदो- पैसे भरते जाओ। एक आदमी को कितना हलाल करोगे? जब व्यक्ति मजदूरी कर रहा है, वह भी टैक्स भर रहा है। कहां गया था- वन नेशन, वन टैक्स। इस काम को सरकार कर नहीं सकी तो अब वन नेशन, वन इलेक्शन का नारा है। जबकि सरकार भी जानती है कि यह व्यवहारिक नहीं है। हम वन तब होते हैं, जब अनेक में एक होते हैं। अनेकता जहां नहीं रहेगी, वहां एकता भी नहीं रहेगी। अमेरिका में हर राज्य का अपना झंडा है। उसके साथ देश का भी झंडा फहरता है, लेकिन यहां झंडे को लेकर कितना बवाल काटा गया। बावजूद इसके नगालैंड का अपना झंडा है। झंडे और डंडे से एकता और अखंडता नहीं आती। यह महज़ एक प्रतीक की अभिव्यक्ति है। किसी को खाने का ठिकाना नहीं और कोई अय्याशी में डूबा है, तो देश कितना अखंड रहेगा?
छत पर बैठे-बैठे लिख रहा हूं। सूरज का लाल गोला दो बांस आसमान में चढ़ गया है। सुबह हवा मुलायम थी। अब गर्म होती जा रही है। एक अच्छी बात है कि हर छत पर कोई न कोई चिड़िया है। मैना, कौआ तो है ही, अनजाने पक्षी भी हैं। जब मैंने यहां मकान बनाया था तो गिने चुने ही घर थे। अब मुहल्ला भर गया है। खास कर गंगा के पार के लोग गुंडागर्दी और बाढ़ से परेशान होकर यहां उन्होंने घर बना लिया है। एक बड़ा सा एपार्टमेंट खड़ा हो चुका है, जिसमें कम से कम पचास फ्लैट तो होंगे ही। मजा यह है कि घर पर घर बन गया है, लेकिन पानी का कोई निकास नहीं है। सभी सड़क पर ही पानी बहाने की कोशिश करते हैं। मैंने अपने घर के पानी को पुनः पृथ्वी के हवाले करने का इंतजाम किया है। एक बोरिंग करवा कर उसमें आवश्यक पाइप और पत्थर डाल कर पूरे घर का पानी उसके हवाले करता हूं। सूरज ने अपना रूप दिखाना शुरू कर दिया है, इसलिए मैं भी अपना कागज पत्तर समेटता हूं
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)