डॉ योगेन्द्र
सुबह सुबह ‘रिम्स‘ टहलने जाता हूँ। लगभग पैंतालीस मिनट के बाद जब कंधे पर पसीना चुहचुहाने लगता है, तब लौट आता हूँ। आज जाते हुए मैंने सोचा कि दुनिया क्या बदलना, मैं तो खुद बदला नहीं। एक टेक थी, उस पर चलता रहा। बहुत से साथी दुनिया बदलने में लगे हैं, लेकिन दुनिया का क्या हो रहा है? फिर घूम कर वहीं का वहीं। मज़ा यह है कि जैसे अंधे हाथी को टटोल कर बताता है कि हाथी सूप है या कि हाथी खंभा है, लेकिन वह यह नहीं बता पाता कि सचमुच हाथी कैसा है? खंड दर्शन करता है और उसे ही सच मानता है और हम सब भी अपने-अपने खंभे और अपने-अपने सूप लिए घूम रहे हैं। इसे ही सच मान कर दौड़ लगा रहे हैं। कोई पानी पकड़ रहा है, कोई जंगल, तो कोई जाति, तो कोई संप्रदाय। सभी को लगता है कि हमारी पकड़ मज़बूत है। बात इतनी पर नहीं रूकती। वे यह भी मानते हैं कि दूसरे भटके हुए हैं। उनमें न विचार है, न व्यवहार है। उनसे कुछ नहीं कबड़ेगा। सच्चाई यह है कि कबड़ किसी से कुछ नहीं रहा। कबाड़ने का भ्रम ज़रूर है।
नदियों की बर्बादी में किसका हाथ है? अगर हम कहते हैं कि नदियों को गंदा करना बंद करो, तो क्या बंद हो जायेगा? नदियाँ क्या इस व्यवस्था से अलग है? व्यवस्था इसी तरह की रहेगी, तो नदियों को कोई बचा सकता है? हॉं, हम आत्मतुष्ट हो सकते हैं कि हमने सवाल उठाये। धरती पर होगा कुछ नहीं। मछुआरे कहते हैं कि नदियों में मछलियाँ नहीं हैं। वे दिनोंदिन घट रही हैं। कौन नदियों में मछलियों को जीने नहीं दे रहा? बिहार में कई नरसंहार हुए। कोर्ट ने किसी को सजा नहीं दी। तो क्या मान लिया जाय कि नर ने अपने ही संहार कर लिए? वैसे ही मछलियों ने क्या खुद ही प्रजनन करना बंद कर दिया? नदियों की आबोहवा को किसने तंग और तबाह किया? 1982 से नदियों के बचाने के आंदोलन से जुड़ा हूँ, लेकिन नदियाँ बच नहीं रहीं। वे दिनोंदिन रसातल में जा रही हैं। प्रदूषण बढ़ा, नदियों के पेट गाद से भरे। मछलियों का घोर अभाव हुआ। लेकिन हम वहीं खड़े हैं। वही सब सवाल, वैसे ही कार्यक्रम। संभव है कि कार्यक्रम हो तो भीड़ भी जुटे। लोग परेशान तो हैं ही, लेकिन नतीजे बहुत अच्छे नहीं आयेंगे।
आप में से बहुत से लोग कह सकते हैं कि यह निराशावादी सोच है। लोग कुछ कर तो रहे हैं। मेरा मानना है कि कुछ करने के लिए कुछ क्यों करना? जब नदी, जंगल, पहाड़, समुद्र, लोग, जीव – सभी व्यवस्था में जी रहे हैं, और व्यवस्था ऐसे ही चलती रहेगी, विकास ऐसा ही होगा, तो क्या अकेले-अकेले सबकी रक्षा हो सकेगी? गिद्ध बहुत कठजीव था। बहुत वर्ष नहीं बीते हैं। मैं जब गाँव था और कोई गाय या बैल मर जाता था, तो झुंड के झुंड गिद्ध उतर आते थे। कुत्तों और गिद्धों में मांस खाने की होड़ लगी रहती थी, लेकिन आज गिद्ध ग़ायब हैं। क्या गिद्ध खुद ग़ायब हो गये या उन्होंने प्रजनन करना बंद कर दिया? या इस व्यवस्था ने उसे निगल लिया? हम गोरैया डे मनाते हैं, क्योंकि गोरैया पर ख़तरा है। क्या डे मनाने से गोरैया बच जायेगी? हम फादर्स डे, मदर्स डे मना रहे हैं, घर में न फादर बच रहे हैं, न मदर। नदियों को बचाने के लिए दीप प्रज्वलन कार्यक्रम हो रहा है, कुछ वैसे ही करोना से बचने के लिए थालियाँ पीट रहे थे। दरअसल, हम बीमारी को खंड दृष्टि से देखने को आदी हो गये हैं, इसलिए संभावना क्षीण पड़ती जा रही है। हमें इस व्यवस्था के कील-पंजों के बारे में सोचना है और एक नयी जीवन दृष्टि के बारे में भी।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)