डॉ योगेन्द्र
बिहार में पूर्व में कई नरसंहार हुए। कोर्ट में मामला गया। कोर्ट में ज्यादातर मामलों में पुलिस साक्ष्य नहीं जुटा पाई या जुटाने नहीं दिया गया। कहा जाता है कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं, लेकिन बिहार के नरसंहार उनकी लंबाई नापता रहा और वह बौना साबित होता रहा। कोर्ट ने अंत में फैसला दिया कि जो भी गिरफ्तारियां हुई हैं, उनमें साक्ष्य का घोर अभाव है, इसलिए सभी बाइज्जत बरी किए जाते हैं। नरसंहार हुआ, यह सच था। कटे हुए सिर थे, बिखरे हुए रक्त थे, छितरायी हुई बाहें थीं, चीखते लोग थे, लेकिन कोई गुनाहगार नहीं था। फैसले से यही लगा कि कटे हुए लोगों ने खुद ही सिर काट लिया हो। ऐसे फैसलों से कौन मजबूत हुआ, लोकतंत्र या न्याय या कार्यपालिका? लोगों को लगा कि गुनाह करने से कुछ नहीं होता, इसलिए करते रहो। अभी-अभी नवादा जिले में दलितों के अस्सी घर जलाए गए। ख़ाक हुईं उनकी झोपड़ियां हैं, जले हुए उनके माल मवेशी हैं, पके हुए भोजन हंडिया में हैं, अनाज का टोकरा है, लेकिन अपराधियों की तलाश कहां ठहरी है?
झोपड़ियां जिनकी जलीं, उनमें चमार और मुसहर हैं। अपराधियों में नाम आ रहा है, उनमें पासवान जाति के लोग हैं। नंदू पासवान उसका सरगना है। कहा जाता है कि नंदू पासवान पहले बिहार सरकार में पुलिस था। उसका बेटा वार्ड पार्षद है और बहू आंगन बाड़ी सेविका है। चर्चा यह भी है कि पासवान को यादवों ने उकसाया। केंद्रीय मंत्री हैं जीतनराम मांझी। वे बिहार के मुख्यमंत्री भी थे। उन्होंने बयान दिया कि नवादा में यादवों ने दलितों का घर जलाया। लगता है कि उन्होंने पूरी घटना की जांच कर ली और अपराधियों की पहचान उनके पास है। यह बहुत ही लापरवाही भरा बयान है और जाति घृणा से भरा हुआ। तेजस्वी यादव राजद के नेता हैं। इसलिए उनकी घेराबंदी करनी है, इसलिए बयान देकर वे संतुष्ट हो गये। अपराधियों की भी तो कोई न कोई जाति होती ही है। अब अपराधियों की जाति के आधार पर पूरी जाति को समेटना क्या यह अभद्रता नहीं है? नंदू पासवान के बहाने सभी पासवानों को अपराधी साबित करना कहां की समझदारी है? क्या इससे जाति द्वेष और घृणा मजबूत नहीं होती है? नेताओं के जो बयान आ रहे हैं, उससे लगता है कि अब नेताओं का नाता नीर क्षीर विवेक से नहीं रहा।
नीतीश कुमार लगभग उलट पुलट कर बीस सालों से मुख्यमंत्री हैं। वे मुख्यमंत्री बने भी तो इस नारे से कि बिहार में जंगलराज है, वे मंगल राज लायेंगे। एक समय जंगल राज था भी। सत्ता पोषित अपराध और अपहरण हो रहे थे। 2008 में मैं बिहार विधान परिषद के लिए कोशी निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहा था। मैं पूर्णिया के एक गांव में पहुंचा। बैठक करते हुए शाम हो गई। गांव के लोगों ने कहा कि यहीं रूक जाइए। मैंने कहा कि नहीं, मुझे जाना है। उन्होंने कहा कि फाइटर पार्टी का बहुत आतंक है। शाम के बाद कोई बाहर नहीं निकलता। मैंने माना नहीं और चल पड़ा। रास्ते में किसी ने रोका नहीं, न कहीं फाइटर पार्टी के लोग मिले। नीतीश कुमार 2004 में मुख्यमंत्री बन चुके थे। कोशी अंचल में अपराधियों का बोलबाला था। धीरे-धीरे उस पर लगाम लगी। नवादा की घटना बताती है कि सामूहिक रूप से अब भी जलाया या मारा जा सकता है। कुछ ही दूरी पर पुलिस थाना है। अपराधी गांव जाकर गोलियां छोड़ीं, डराया-धमकाया, लेकिन पुलिस को कुछ पता नहीं चला। सरकार के पास जासूसी संस्था है, क्या ऐसी दुर्घटना की भनक तक नहीं मिली? अचानक तो इतनी बड़ी दुर्घटना नहीं हो सकती। इसके लिए कोई न कोई बैठक, बातचीत आदि तो हुई ही होगी। अगर मुखिया, विधायक, पुलिस, सांसद, सरकार को कुछ मालूम ही नहीं तो इन पर गहरे सवाल हैं ही। लोकतंत्र का लोक की उजड़ती दुनिया के लिए यह तंत्र तो जिम्मेदार हैं ही।