धर्म जब ढकोसला बन जाए तो मेरा अधर्मी होना ही ठीक
असहाय, दीन-हीन उपेक्षित भक्तों की उपेक्षा कर सत्तासीन राजनेताओं और धन्नासेठों को भगवत दर्शन की वीआईपी सुविधा
ब्रह्मानंद ठाकुर
कभी गरीबों, दीन -दुखियों, पीड़ितों, उपेक्षितों की सच्चे मन से सेवा करने, उसकी भलाई करने, उसकी भूख और तद्जनित तड़प मिटाने को धर्म की संज्ञा दी गई थी। बाबा तुलसीदास ने धर्म-अधर्म को इस चौपाई में परिभाषित किया – परहित सरिस धरम नहिं भाई / पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। आज के हालात देखकर लगता है कि धर्म की यह परिभाषा भी तथाकथित धार्मिकों का एक ढकोसला है। पीड़ितों के आंसू पोंछने के नाम पर उन्हें ठगना, धोखा देना, उन्हें पहले से भी ज्यादा पीड़ाजनक स्थिति में पहुंचा देना। मतलब साफ है, गरीबी, अभाव, दैन्य, उत्पीड़न बढ़ाओ और फिर उसे कथित रूप से दूर करने का दिखावा करो, लूटो। फिर उस लूट का न्यूनतम अंश दान कर लोक में दानी कहलाओ, पुण्य कर्म का भागी बन जाओ। पहले घाव करो, फिर प्यार से उस पर मरहम लगाओ। मेरे भाई, धर्म का यह कैसा दोहरा चरित्र है। ऐसा धर्म तुम्हें मुबारक। हम तो इसका विरोध करेंगे ही। ऐसा इसलिए कि किशोरावस्था में ही राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह की कहानी दरिद्र नारायण और पंडित रामनरेश त्रिपाठी की कविता ‘तुम और मैं’ पढ़ते हुए धर्म का असली मर्म मैं समझ चुका हूं। कहना चाहता हूं कि समय के साथ मेरी यह समझ और पुख्ता ही हुई है। अब तो जिंदगी का अवसान काल गुजर रहा है। जवानी में जब दूसरा रंग नहीं चढ़ पाया तो अब क्या खाक चढ़ेगा? राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह ने अपनी कहानी दरिद्र नारायण में दरिद्रों में नारायणत्व की स्थापना की है। कवि रामनरेश त्रिपाठी ने अपनी कविता में भगवान से मिलने की जो राह भक्तों ने अपनाई है, उसे ही भगवत मिलन में बाधक करार दिया है। जरा गौर करिए —
‘तू खोजता मुझे था जब कुंज और वन में
मैं ढूंढता तुझे था तब दीन के वतन में।
मैं आह बन किसी की तुझको पुकारता था,
तू था मुझे बुलाता, संगीत में भजन में।
तेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर मैं,
तू बाट जोहता था मेरी किसी चमन में।’
आज के धार्मिक कृत्य इससे कुछ इतर कहां हैं? भगवान के मंदिरों में गरीब, असहाय, दीन-हीन उपेक्षित भक्तों की उपेक्षा कर सत्तासीन राजनेताओं और धन्नासेठों को भगवत दर्शन की वीआईपी सुविधा उपलब्ध कराया जाना आखिर क्या दर्शाता है? इस वर्ग विभाजित समाज में धर्म का भी वर्ग चरित्र होता है। भगवान का भी और धर्म के प्रतिनिधियों का भी। भगत सिंह ने अपने आलेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ में तमाम बातें स्पष्ट लिख दी हैं। वे तार्किक भी हैं, विज्ञान सम्मत भी। जरूरत है उसे समझने की।
छायावादोत्तर काल के स्वच्छंदतावादी कवि राम इकबाल सिंह ‘राकेश’ (1912–1994) ने भी अपनी गांडीव शीर्षक कविता में ईश्वर को सवालों के कठघरे में खड़ा करते हुए लिखा है-
‘खुले बंद मैं लिखता हूं, यह खुला छंद हूं,
भुजा उठाकर कहता हूं मैं !
कोटि-कोटि पापों, अपराधों, अन्यायों के,
अपमानों, पैशाचिकताओं, अपघातों के,
क्षण, मुहुर्त, घंटे तुम ईश्वर !
तुम्हीं नियम, कारण हे पापी-पामर!
तेरी गज-भर की छाती पर मूंग दलूंगा !
क्योंकि तुम्हारी मर्जी से ही सब कुछ होता।’
इसीलिए तो आधुनिक युग का विज्ञान ईश्वर की सत्ता पर वैज्ञानिक नजरिए से पुनर्विचार का आग्रह करता है। वैसे तिरुपति मंदिर में मिलावट वाले लडृडू का मामला आम जनता को उसकी ऐसी ही अनगिनत समस्याओं से ध्यान हटाने का एक प्रयास है जिसे समझना जरूरी है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)