क्या तुमने फ़िराक़ को देखा है?
फ़िराक़ ने लिखा था- “ बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते है/ तुझे ऐ ज़िंदगी, हम दूर से पहचान लेते हैं ।” उनका मानना था-“ देवताओं का ख़ुदा से होगा काम/ आदमी को आदमी दरकार है ।” 28 अगस्त 1896 में जन्मे फ़िराक़ की उँगलियों में सिगरेट फँसी रहती और ज़ुबान पर ग़ज़लें । वे प्रोफ़ेसर थे अंग्रेज़ी के और लिखते थे उर्दू में। उसमें भी कोई ऐसी वैसी शायरी नहीं। उर्दू शायरी में मीर और ग़ालिब के बाद फ़िराक़ गोरखपुरी का नाम है। फ़िराक़ का व्यक्तित्व अद्भुत था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय कैंपस में चालीस वर्ष रहे।अकेले।अनमेल विवाह था। रिश्ते बहुत पहले टूट गए । उनके अकेलेपन का एक क़िस्सा मशहूर है। उस दिन नौकर सब्ज़ी ख़रीदने बाज़ार गया था। वे अकेले सिगरेट फूंक रहे थे कि एक चोर आया और उनके सीने पर चाकू रख दिया। चोर ने पैसे माँगे । फ़िराक़ उसको चुपचाप देखते रहे । फिर बोले कि अगर तुम जान लेना चाहते हो तो मुझे कुछ नहीं कहना। अगर पैसे चाहते हो तो नौकर को आने दो , मैं पैसे दिलवा दूँगा ।चोर बैठ गया । नौकर का इंतज़ार होने लगा। इसके बाद फ़ैज़ ने कहा कि अच्छा किया , तुम आ गये। मैं बहुत तन्हाई महसूस कर रहा था।
फ़िराक़ के अजब- ग़ज़ब क़िस्से । मस्त मौला , बेपरवाह । उनसे बड़े बड़े लोग डरते थे। उन्होंने घोषणा कर रखी थी कि भारत में सिर्फ़ ढाई लोगों को अंग्रेज़ी आती है । एक फ़िराक़, दूसरे राजेन्द्र प्रसाद और आधे जवाहरलाल नेहरू । फ़िराक़ पढ़ाई में बहुत तेज़तर्रार थे। उन्होंने कला स्नातक में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाया। इसके आधार पर वे आई सी एस पदाधिकारी हो गये। दो वर्ष तक नौकरी की, फिर महात्मा गांधी के आंदोलन में शामिल हो गए । आंदोलन में रहते उनकी गिरफ़्तारी हुई । वे डेढ़ वर्ष जेल में रहे। महात्मा गांधी से वे उस वक़्त नाराज़ हो गए, जब चौरा चौरी कांड के बाद आंदोलन वापस लिया। फिर उन्होंने अंग्रेज़ी में एम ए किया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1930 से 1959 तक अंग्रेज़ी पढ़ायी । 1969 में उन्हें उनकी रचना ‘गुले नग्मा’ पर ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया। 1970 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला । उनको पद्म भूषण का ख़िताब भी दिया गया। 1981 में उनकी मृत्यु हो गई ।
एक बार पहुँचे पाकिस्तान । वहाँ जाकर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को ढूँढने लगे। दरअसल हुआ यह था कि फ़ैज़ ने उनकी शायरी की नुक्ताचीनी की थी। वे फ़ैज़ को ढूँढते इमरोज के संपादक अहमद नदीम क़ासमी के दफ़्तर में पहुँचे।क़ासमी ने उनका स्वागत किया और चाय ऑफ़र किया। फ़िराक़ ने कहा- तुम्हारी चाय तबतक नहीं पियूँगा, ज़ब तक फ़िराक़ को नहीं बुलाओगे । आख़िर फ़ैज़ को बुलाया गया। फ़िराक़ ने फ़ैज़ से पूछा कि मेरे मज़मून में कौन- सी गलती है कि तुमने नुक्ताचीनी की? फैज हड़बड़ा गये। उन्होंने तुरंत अपनी गलती मान ली ।तब उन्होंने नदीम से कहा कि अब चाय मँगाओ । बाद में नदीम ने फ़ैज़ से पूछा कि आप इतनी जल्दी सरेंडर कैसे कर गये? फ़ैज़ ने कहा कि तुम फ़िराक़ को नहीं जानते। यह अंग्रेज़ी, हिन्दी, उर्दू का अद्भुत विद्वान हैं। उनसे टक्कर लेना नामुमकिन है।
फ़िराक़ कहते थे-“ किताबों की दुनिया मुर्दों और जिंदों दोनों के बीच की दुनिया है।”। फ़िराक़ सच ही कहते थे। वे आज भी किताबों में दफ़्न भी हैं और जीवित भी। यों उनके पहनावे में लापरवाही की कोई सीमा नहीं थी। टोपी से झांकते बिखरे बाल, शेरवानी के खुले बटन, लटकता हुआ इजारबंद, ढीला ढाला पैजामा, एक हाथ में सिगरेट, दूसरे में घड़ी, मगर शायरी की दुनिया की अद्भुत शख़्सियत थे। 1962 की चीनी लड़ाई के समय फ़िराक़ ने लिखा -“ सुख़न की शम्मां जलाओ बहुत उदास है रात/ नवाए मीर सुनाओ बहुत उदास है रात ।कोई कहे ये ख़यालों और ख़्वाबों से/ दिलों से दूर न जाओ बहुत उदास है रात।