आधुनिक हिंदी पत्रकारिता के दधीचि ‘रवि ‘ जी

"एक कविता: बत्तीस संदर्भ"

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ब्रह्मानंद ठाकुर
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ‘रवि ‘ यही नाम था उनका। जब तक जीवित रहे, गांव से लेकर शहर तक अपने चाहने वालों, इष्ट मित्रों एवं प्रशंसको में ‘ रवि जी ‘ नाम से ही जाने जाते रहे। सन् साठ के दशक में हिंदी से स्नातकोत्तर करने वाले रवि जी अपने शिक्षकों के बड़े ही प्रिय छात्र थे। तब के समय में सरकारी नौकरी पाना आज की तरह मुश्किल नहीं था। लेकिन उसके लिए तब भी पैरवी और पैसे की जरूरत होती थी। रवि जी ने इस सम्बंध में अपनी कविता “एक कविता : बत्तीस संदर्भ” में लिखा है
‘कालेज के लिए अप्लाई किया —
इंटरव्यू दिया —
मेरी कविता पर जमकर प्रश्न चला
डटकर जवाब दिया —
पर मेरा नाम नहीं भेजा गया,
वह पद शिक्षामंत्री के
कैंडिडेट को मिला,
यह बाद में मालूम हुआ।
जाहिर है, यह “एक कविता: बत्तीस संदर्भ” उनके 32 साल के जीवन के 32 सोपान हैं। इसमें उनके युवा-जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव के साथ आर्थिक विषमता जनित सामाजिक, राजनीतिक विकृतियों के अनुभव हैं। यह अनुभव सिर्फ उनका नहीं, उन जैसे आत्मसम्मान और स्वाभिमान की जिंदगी जीने की चाहत रखने वाले देश के हर युवा का है। उनके अनेक साथियों ने विभिन्न विभागों में अच्छी नौकरी ज्वाइन कर ली और आज पेंशन से अच्छी तरह जीवन यापन कर रहे हैं। रवि जी ने भी अनिच्छा से एक नव स्थापित गैर सरकारी कालेज में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कुछ महीने के लिए योगदान किया। उस दौरान अपने अनुभवों को बड़े बेबाकी के साथ अपनी काव्य पुस्तक “एक कविता बत्तीस संदर्भ” में व्यक्त किया है। वे लिखते हैं —-
‘ कालेज में पढ़ाने गया. सूर ,तुलसी पढ़ा न सका/ निर्गुण ,सगुण और शास्त्र -पुरान की कथा गलत लगी . छात्रों को ग़लत बता न सका शिक्षा पद्धति को अनुत्पादक बताकर / रिभोल्ट करा न सका/वापस लौट आया।’ रवि जी की कालेज से वापसी और पत्रकारिता में प्रवेश सत्तर के दशक में हुई। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध , लगभग 47-48 सालों तक वे पत्रकारिता से जुड़े रहे। पटना से प्रकाशित अनेक साप्ताहिक ,अर्ध साप्ताहिक पत्रों का सम्पादन किया। कालान्तर मे उनसे पत्रकारिता की ट्रेनिंग पाए कई
युवा पत्रकार दैनिक अखबारों में सम्पादक पद को भी सुशोभित किया। अपने सिद्धांतों से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं करने वाले रवि जी कभी भी अपना दर्द किसी से साझा नहीं किया। तब रेडियो स्टेशन से अक्सर उनको काव्यपाठ के लिए बुलाया जाता था।मुझे याद है। वह इमर्जेंसी का जमाना था। एक दिन रेडियो पर सर्व भाषा कवि गोष्ठी आयोजित थी। इस कार्यक्रम में वे काव्य पाठ के लिए आमंत्रित थे।सेंसर बोर्ड के अधिकारियों ने उनकी कविता को पास कर दिया था।कविता बज्जिका भाषा में थी।वे सुना रहे थे , ‘चद्दर तनले की सूतल छी /जागूं ,काम पर भागू अबेर होइय/’
कवि ने इस कविता के माध्यम से इमर्जेंसी की ज्यादतियों के खिलाफ जनता को जागृत कर दिया।सेंसर बोर्ड के अधिकारी गच्चा खा चुके थे। बाहर से बिल्कुल सरल और शांत , अंदर से अन्याय , अत्याचार और शोषण , भ्रष्टाचार के खिलाफ उबलते हुए रवि जी को समझना हो तो उनकी कविता की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है।
‘ पैसा कहां है ? कुछ लोगों की बंद तिजोरी में है? बैंक में है? मेरी जेब में न था,न है —————-।
‘लडे बिना कुछ नहीं होगा— न सम्पत्ति का स्वामित्व मिटेगा ,न उसकी सीमा बंधेगी, न भूमि मिलेगी , न रोजी मिलेगी, लोकतंत्री सरकार में संसदीय प्रणाली से।’
रवि जी ने कभी भी किसी की चरण वंदना कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश नहीं की। जीवन पर्यंत समाज में उच्च सांस्कृतिक मानदंड स्थापित करने के लिए संघर्षरत रहे।इसका उदाहरण उनकी एक कविता की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है —
‘ जब मिलता है आशीष यहां ,चरणों पर शीष झुकाने से,
मैं सिर सदा उठा, चलने वाली संस्कृति ही सोचूं ,सिरजूंगा।’
ऐसी संस्कृति पैदा करने के लिए जो जीवन पर्यंत
तिल-तिल कर जलता रहा ,वह दधीचि नहीं तो और क्या है ?

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