डॉ योगेन्द्र
देश है, यहाँ क्रांति की दुंदुभी बजती ही रहती है। मैं भी कई बार इस दुंदुभी के शिकार हुआ। दुंदुभी मोहती तो है ही। 1974 में यह दुंदुभी बहुत ज़ोर से बजी थी। अनेक युवाओं की जवानी इस पर भेंट चढ़ गई। मैं बहुत छोटा था, तब भी हल्का झोंका लगा था। ईंट पत्थर मैंने भी बरसाये थे। मगर पूरी तरह शरीक नहीं था। दूर देहात में पता ही नहीं था कि आख़िर देश में चल क्या रहा है? फिर 1989 में बी पी सिंह की क्रांति की दुंदुभी बजी। मैं इसमें शरीक हो गया। धरना, प्रदर्शन और बंदी। आख़िर भारत बंद के दौरान जेल भी पहुँच गया। जेल में कोई यातना नहीं दी गई, बल्कि राजनैतिक क़ैदियों के लिए अलग से सुविधाएँ थीं। हम लोग समूह में थे। जेल में क्या कष्ट होता है, इसका अंदाज़ा नहीं हुआ। इसके पूर्व भी 1980 में जगन्नाथ मिश्रा सरकार के प्रेस बिल की ख़िलाफ़त करते हुए जेल गया था। साथ में बिहार सरकार के पूर्व मंत्री जागेश्वर मंडल भी थे। दोनों ही जेल यात्रा में जेल-कष्ट का अनुभव नहीं हुआ। 1989 की क्रांति भी टाँय-टाँय फिस्स हो गयी। सरकार बदली। कुछ लोग विधायक और सांसद बने और बी पी सिंह की सरकार बनी। उन्हें एक तरफ़ बीजेपी ने थामा था, दूसरी तरफ़ वामपंथियों ने। ग्यारह माह तक सरकार चली और फिर धराशायी हो गई। बी पी सिंह सरकार को पिछड़ों को दिये गये आरक्षण के लिए याद किया जाता है।
मन छटपटाता रहा। अधूरी-अधूरी क्रांति कब तक होती रहेगी? क्या जीवन में कभी पूरी क्रांति नहीं होगी? मैं कभी इधर, कभी उधर। फिर 2012 का दौर आया। क्रांति की दुंदुभी एक बार फिर बजी। मैं उसमें शरीक हो गया। मुझे लगा था कि यही सही मौक़ा है। चाहे जो हो, देश इस बार बदल कर रहेगा मैं पिल पड़ा। हर दिन, हर सुबह क्रांति के सपने देखने लगा। जुलूस, प्रदर्शन, धरना और गोष्ठी। दो वर्ष लगा रहा। साथियों को भी लगाया। मगर एक दिन पता चला कि यह क्रांति झाड़ू में सिमट गई। झाड़ू दिल्ली में चली। क्रांतिकारी लोग झाड़ू पकड़ कर खड़े हो गये। झाड़ू क्रांति के कई लोग जेल आ जा रहे हैं। संभव है कि उनके ख़िलाफ़ साज़िश हो, लेकिन उनके तरह तरह के ड्रामे अब उबाऊ लगने लगे हैं। आज भी मन में ऊहापोह है। दो अक्तूबर के दिन एक और क्रांति का दावा करती एक पार्टी का जन्म हुआ है। मुझे इस पार्टी की क्रांति ने कभी नहीं लुभाया। पर इससे क्या होता है? जिस क्रांति में मैं शामिल नहीं होऊँगा, वहाँ क्या क्रांति नहीं होगी? क्रांति के लिए किसी व्यक्ति का इंतज़ार नहीं होता। क्रांति कहीं से चल कर कहीं जा सकती है ।
नयी वाली क्रांति के लक्षण मज़ेदार हैं। गाँधी और उनके चरखे पोस्टर में हैं। चरखा आज़ादी का प्रतीक था। वह जनता को आत्मनिर्भर बनाता था। गाँधी जी भी जनता से पैसे लिये। एक एक पाई का हिसाब रखा और आंदोलन चलाया। नयी वाली पार्टी जनता से कुछ नहीं माँगती। उनके पास गाड़ी घोड़ा सब है। सिर्फ़ आप इस पर सवार हो जाइए। यह पार्टी जनता से कुछ नहीं लेगी। वह खुद आत्मनिर्भर है या कहें कि उसकी आत्मा भी किसी ताड़ के पेड़ पर बैठे सुग्गे में फँसी है। कुछ लोगों को लगता है कि यह सवारी सीधे संसद और विधानसभा में घुसेगी। सो, उन्होंने भांज लगाना शुरू कर दिया है। पार्टी को मालूम है कि बिहार की राजनीति में जाति खेल बहुत होता है, सो वह भी जाति-जाति खेल रही है। बिहार की पुरानी पार्टी भी थक मर गयी है या नशे में चूर है। सो एक अवसर है। नये नारों से सत्ता तक पहुँचा जा सकता है, लेकिन आमूलचूल परिवर्तन जैसी कोई बात दूर दूर तक नहीं लगती। लेकिन देश में एक क्रांति की सचमुच ज़रूरत है जो शैतानी सभ्यता का विकल्प पेश कर सके। यह विकल्प हर क्षेत्र का हो। टुकड़े-टुकड़े में नहीं, सर्वांगीण।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)