निर्मल रानी
हरियाणा व जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनाव परिणाम आ चुके हैं। कश्मीर में जहां कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस (इंडिया) गठबंधन ने जीत हासिल की है वहीं हरियाणा में कांग्रेस के दस सालों बाद सत्ता में वापसी की लगाई जा रही तमाम अटकलों, संभावनाओं, भविष्यवाणियों यहाँ तक कि लगभग सभी एजेंसियों द्वारा दिए जा रहे एग्ज़िट पोल के बावजूद भारतीय जनता पार्टी राज्य के इतिहास में पहली बार एक ऐसा राजनैतिक दल साबित हुआ जिसने लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी की हो। राज्य में भाजपा विरोधी लहर के कई प्रमुख ठोस कारण थे। इनमें पहला सबसे बड़ा कारण इस कृषि बाहुल्य राज्य के किसानों की भाजपा से ज़बरदस्त नाराज़गी थी। साथ ही अग्निवीर योजना को लेकर भी यहाँ के युवाओं में काफ़ी रोष था। महिला पहलवानों के अपमान को लेकर भी राज्य में काफ़ी नाराज़गी थी। यह नाराज़गी केवल किसी पूर्वाग्रही पक्ष द्वारा प्रचारित की जा रही ज़बरदस्ती या दिखावे की नाराज़गी नहीं थी बल्कि जनता का यह रोष उस समय सिर चढ़कर बोलता था जबकि जनता के इसी विरोध के चलते राज्य के अधिकांश भाजपा उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार के दौरान जनता के विरोध प्रदर्शनों व काले झंडों का सामना करना पड़ता था। पूरे राज्य में सैकड़ों घटनाएं ऐसी हुईं जबकि भाजपा प्रत्याशी को चुनाव प्रचार बीच में छोड़कर ही वापस आना पड़ा। भाजपा के बड़े से बड़े स्टार प्रचारकों को सुनने के लिये जुटने वाली कम भीड़ भी यही इशारा कर रही थी कि राज्य के मतदाता भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिये कमर कस चुके हैं। कांग्रेस ने तो इन नतीजों को परिभाषित करते हुये कहा है कि -‘यह तंत्र की जीत और लोकतंत्र की हार है, हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते। और ‘हम इन सारी शिकायतों को लेकर चुनाव आयोग जाएंगे।’
बहरहाल जो विश्लेषक व समीक्षक कल तक हरियाणा में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत दिला रहे थे और भाजपा को 15 से बीस सीटों पर धकेल रहे थे वही लोग अब भाजपा की अप्रत्याशित वापसी के कारण खोजने में जुट गए हैं। अनेक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा ने ग़ैर जाट वोट बैंक तैयार कर उनका ध्रुवीकरण इतनी ख़ामोशी व चतुराई से किया कि विपक्ष उसे भांप ही नहीं पाया। राज्य में कांग्रेस नेताओं की आपसी कलह को भी कुछ लोग इस हार का ज़िम्मेदार बता रहे हैं। परन्तु हक़ीक़त यह है कि हरियाणा में भाजपा की वापसी का सबसे बड़ा कारण भाजपा विरोधी मतों का विभाजन है। ख़ासकर आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, आज़ाद पार्टी (चंद्रशेखर रावण ), जन नायक जनता पार्टी, इनेलो जैसे दल जोकि भाजपा विरोधी स्वरों के साथ चुनाव तो ज़रूर लड़े परन्तु हक़ीक़त में इनके मतों के विभाजित होने के कारण ही भाजपा बहुमत के आंकड़े तक पहुँच सकी। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी जोकि इण्डिया गठबंधन का हिस्सा भी है उसने तो हठधर्मिता की सभी हदें पार करते हुये राज्य की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिये। परिणाम यह निकला कि उसके तो सभी उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गयी। परन्तु इससे भाजपा को यह फ़ायदा ज़रूर हुआ कि भाजपा ने अनेक सीटों पर मात्र 2-3 हज़ार मतों से जीत दर्ज की। यानी उतने ही वोट आप ले गयी। यदि कांग्रेस के साथ आप का सीट बंटवारा हो गया होता और आप अपनी हैसीयत से अधिक सीटों के लिए ज़िद न करती तो नतीजे कुछ और ही हो सकते थे।
मज़े की बात तो यह भी है कि इन चुनावों को केजरीवाल ने अपनी ईमानदारी का प्रमाणपत्र समझ रखा था। उन्होंने कहा था कि ‘इन चुनावों में देश की जनता अपने वोट के माध्यम से ही यह बताएगी कि हम कितने ईमानदार हैं। ‘तो अब हरियाणा में आप के सभी प्रत्याशियों की ज़मानत ज़ब्त होने का क्या अर्थ निकाला जाये? आप के चुनावी मैदान में उतरने और सभी सीटों पर चुनाव लड़ने के फ़ैसले को राज्य के मतदाताओं ने केजरीवाल की ईमानदारी या भ्रष्टाचार पर जनमत संग्रह के रूप में तो नहीं देखा हाँ चुनाव पूर्व केजरीवाल की ज़मानत होना और हरियाणा में कांग्रेस से समझौता न कर सभी सीटों पर आप के चुनाव लड़ने के फ़ैसले को आप को भाजपा की सहयोगी यानी बी टीम के रूप में ज़रूर देखा। जिसका नतीजा आप को बुरी तरह भुगतना पड़ा। इसी तरह मायावती की बसपा व आज़ाद समाज पार्टी ने भी अपने प्रत्याशी उतारकर अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को ही मदद पहुंचाई।
सवाल यह है कि पिछले लोकसभा चुनावों में जब इण्डिया गठबंधन की एकता यह साबित कर चुकी थी कि जिन जिन राज्यों में भाजपा के मुक़ाबले में इण्डिया गठबंधन का एक ही उम्मीदवार चुनाव लड़ा ऐसे अनेक सीटों पर इण्डिया गठबंधन को सफलता मिली और जहाँ-जहाँ इण्डिया गठबंधन बिखरा रहा वहां-वहाँ उसे ज़्यादा नुक़्सान हुआ। भाजपा ख़ुद भी यह अच्छी तरह जानती है कि विपक्ष के एक के मुक़ाबले अपना एक प्रत्याशी लड़वाकर उसे आसानी से जीत नहीं मिल सकती। इसलिये वह इण्डिया के उन घटक दलों के प्रति नर्म रुख़ से पेश आती है जो इण्डिया गठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़कर चुनावी संघर्ष को त्रिकोणीय या चतुर्थकोणीय बनाने की क्षमता रखते हैं।
कांग्रेस के लिये भी यह गहन चिंतन का समय है। जिस तरह चुनाव परिणाम आने से पहले चुनाव के दौरान ही मुख्यमंत्री पद को लेकर ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम लट्ठ’ जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। इतना ही नहीं बल्कि राज्य कांग्रेस के मुख्य मंत्री पद के दावेदार कुछ प्रमुख नेता अत्यधिक आत्मविश्वास में डूबे हुये अपने परिजनों व अपने समर्थकों को टिकट दिलाने की जुगत भिड़ा रहे थे यहाँ तक कि जातिगत दुर्भावना फैलाने तक की ख़बरें आने लगीं, इन बातों से भी कांग्रेस को नुक़्सान उठाना पड़ा। राहुल गांधी ने भी अपनी तरफ़ से राज्य में चुनावी माहौल कांग्रेस के पक्ष में तैयार करने में कोई कसर न छोड़ी। परन्तु पार्टी के नेताओं की आपसी फूट, उनका अत्यधिक आत्म विश्वास और इण्डिया गठबंधन का पूरी मज़बूती के साथ खड़े न होना यानी भाजपा विरोधी मतों का विभाजन कांग्रेस की हार व भाजपा की विजय का कारण बना। यानी बक़ौल शायर, महताब राय ताबां- ‘दिल के फफोले जल उठे सीने के दाग़ से। इस घर को आग लग गई घर के चराग़ से।।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)