वृद्ध दिवस पर वृद्धों की चिंता ?

वृद्धों की चिंता एक ही दिन क्यों

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ब्रह्मानंद ठाकुर
आज के ठाकुर का कोना का यह शीर्षक पाठकों से, देश के रहनुमाओं से प्रश्न करता है। आखिर वृद्धों की चिंता एक ही दिन क्यों? प्रतिदिन, सुबह, दोपहर शाम और रात में भी क्यों नहीं ? हमारे वृद्धजन इस सवाल का जवाब चाहते हैं। देगा कौन ? क्योंकि सवाल उस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जुड़ा है, जिसमें हम रह रहे हैं।
1990 में एक अक्टूबर के दिन को अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस घोषित किया गया था। अपने देश में इस दिवस की शुरुआत 1991 में हुई। तब से हर साल 1 अक्टूबर को वृद्ध दिवस मनाया जाता है। बाल दिवस, युवा दिवस, महिला दिवस, मजदूर दिवस, पृथ्वी दिवस, पर्यावरण दिवस आदि दिवसों की तरह। यह बात दीगर है कि इन दिवसों को मनाते हुए ‘ मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दबा की’ वाली उक्ति ही चरितार्थ होती रही है। वृद्ध दिवस का आयोजन अक्सर शहरी बुद्धिजीवियों एवं उनके कतिपय संगठनों द्वारा ही किया जाता है। वरिष्ठ नागरिकों के संगठन भी यह आयोजन करते हैं। ऐसे अवसरों पर दिए गये भाषणों में वृद्ध जनों की समाज में उपेक्षा जनित पीड़ा पर आठ-आठ आंसू बहाए जाते हैं। कुछ प्रस्ताव पारित होते हैं। सरकार को मांग पत्र भी सौंपा जाता है। फिर अगले वृद्ध दिवस तक के लिए सब कुछ यथावत ! इस बार भी शहर में पहली अक्टुबर को आयोजित वृद्ध दिवस समारोह का एजेंडा इससे अलग नहीं रहा।
यह सब लिखते हुए मुझे पुराने जमाने का संयुक्त परिवार याद हो आया है। तब परिवार के वृद्ध जन (पुरुष या महिला) आजीवन अपने परिवार के मुखिया हुआ करते थे। उनकी इजाजत और मर्जी के बिना कोई काम ही नहीं होता था। गांव में वृद्ध जनों की बड़ी पूछ थी। लोग कोई भी काम करने से पहले उनकी सलाह जरूर लिया करते थे। परिवार का कोई भी सदस्य खेती, व्यापार या नौकरी से जो भी आमदनी करता था, उसे अपने परिवार के उन्हीं वृद्ध मुखिया के हाथ में सौंप देता था। वे परिवार के अन्य सदस्यों की जरूरतें पूरी किया करते। ‘मुखिया मुख सों चाहिए, खान-पान को एक/पालै, पोसै सकल अंग तुलसी सहित विवेक।’ यह उक्ति संयुक्त परिवार में चरितार्थ होती थी। वृद्ध जनों को अपने होने के महत्व का एहसास था । इस एहसास से वे खुद को गौरवान्वित समझते थे। सिर्फ अपने परिवार का ही नहीं, समाज के भी वे सही अर्थों में मार्गदर्शक कहे जाते थे। कालांतर में संयुक्त परिवार की अवधारणा खत्म हो गई। उसकी जगह एकल परिवार ने ले लिया। परिवार पति-पत्नी और बच्चे तक सीमित हो गया। अर्थ की प्रधानता हुई। विचार गौन हो गया। सारे रिश्ते-नाते अर्थ पर आधारित हो गये। शारीरिक रूप से अर्थोपार्जन में असमर्थ वृद्ध जन अपने ही परिवार में बोझ बन गये। बात-बात में माता-पिता को बेटा आंख दिखाने लगा। वृद्धजन अपने अतीत की याद कर बिसूरते रहे। अंत में उन्हीं के बच्चों ने उन्हें वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा दिया। जीवन भर परिवार में अपने बाल बच्चों के साथ रहते हुए अंत समय में उनसे इस तरह अलग कर दिए जाने की वृद्ध जनों की पीड़ा आज तक किसी ने नहीं समझी।

संयुक्त परिवार का एकल परिवार में बदल जाना भी वर्तमान आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था की अनिवार्य परिणति है। इन स्थितियों से मुक्ति वृद्ध दिवस, बाल दिवस, युवा दिवस, पृथ्वी दिवस और पर्यावरण दिवस मनाने से नहीं, व्यवस्था परिवर्तन से ही सम्भव है। और, व्यवस्था परिवर्तन वोट से सरकारें बदल कर नहीं की जा सकतीं श्रीमान।

 

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Brahmanand Thakur
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
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