चुनाव के बोझ से दबा लोकतंत्र

आओ चुनाव-चुनाव खेलें

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बाबा विजयेन्द्र
नेताओं की जीभ जब फिसलने लगे। इनके अनाप-शनाप बयान आने लग जाए। हिन्दू-मुसलमान, जातीय और साम्प्रदायिक दंगे भी होने लग जाए। ईडी, सीबीआई एक्टिव हो जाए। कुछ नेता और कार्यकर्ताओं के मारे जाने की खबर भी आने लग जाए तो आप अंदाजा लगाने में देर नहीं करेंगे कि कोई चुनाव आने वाला है।
चुनावों के बोझ से दबे हुए इस लोकतंत्र की व्यथा-कथा को कौन सुनेगा? हम उस देश के वासी हैं जहाँ केवल चुनाव होते हैं? जहाँ चुनावी मानसून हमेशा बना रहता है. इस लोकतंत्र ने निर्वाचन आयोग के भवन को भी जानदार बना दिया है। भाई! जब अभी हरियाणा का चुनाव हुआ ही तो दो और राज्यों का चुनाव साथ करवाया जा सकता था? बेमतलब का सेंसेशन में इस लोकतंत्र को रखने की क्या जरुरत थी? देश के पास और भी तो काम है। रोज दिन की यही कहानी पढ़ी जाएगी तो इस दौर की नयी कहानी कैसे लिखी जाएगी?
देश का पूरा मिजाज फिर अब नवम्बर तक के लिए सेट हो चुका है। फिर अब दो महीने तक चुनावी-दंगल का आनंद उठाया जायेगा। इन दो राज्यों के चुनाव के साथ कुछ खाली सीटों पर उपचुनाव भी होने हैं। इस उपचुनाव का भी स्वरुप अखिल भारतीय ही है। कुल मिलाकर पूरा देश अब निरर्थक बहसों को देखने-सुनने को अभिशप्त होगा।
हरियाणा और जेके के चुनाव के परिणाम उत्तेजना से भरे हुए थे। जो भी हो हम महसूस कर रहे हैं कि दिन-प्रतिदिन चुनाव और भी रोचक होता जा रहा है। यहां कोई जीत कर भी हार जा रहा है तो कोई हार कर भी जीत जा रहा है। चुनाव की जीत और हार, सेहरा और ठीकरा में परिवर्तित हो जाती है। हार गए तो तुम जिम्मेवार और जीत गए तो मैं जिम्मेवार! यहां शपथ-ग्रहण तक सस्पेंस बना रहता है।
कभी भी कुछ भी हो सकता है। कौन बीच से निकल कर मुख्यमंत्री बन जाए, यह थ्रील इन दिनों हम महसूसते रहे हैं। क्रिकेट की तरह चुनाव भी अनिश्चितता का खेल बन गया है। अंतिम बॉल और अंतिम राऊंड? अंतिम राऊंड के बाद भी नेता हारते नहीं हैं। फिर चुनाव को ही केंसिल कराने की जद्दोजहद सामने आती है। यह खेल दूर तक खींचा जाता है। चुनाव के बाद भी ईवीएम पर बहस होती है। यह है हमारा उत्सवधर्मी लोकतंत्र?
महाराष्ट्र के चुनाव की तिथि अभी-अभी घोषित हुई है। 20 नवम्बर को एक ही चरण में महाराष्ट्र का चुनाव निपट जाएगा। 23 नवम्बर को परिणाम आ जायेगा। झारखण्ड का चुनाव दो चरणों में होगा पर परिणाम 23 नवम्बर को ही आएगा।
वैसे नेता तो पहले से ही चुनाव के लिए तैयारी में थे। लगभग सीटों का बंटवारा भी हो चुका है। और जो शेष संतोष और असंतोष होगा वह चुनाव का रिचुअल्स के अलावे कुछ नहीं। राष्ट्र तो गरम है ही अब महाराष्ट्र भी गरम हो चुका है। बाबा सिद्दीकी की हत्या से महाराष्ट्र गरमाया हुआ है। बिश्नोई की चर्चा ऐसे हो रही है कि मानो हर किसी को आप प्रेरित कर रहे हों आओ बिश्नोई बनें। बात रवि बिश्नोई जो होनहार गेंदबाज है की भी होती तो अच्छा लगता?
इस समुदाय को कितने लोग जानते हैं। शायद कम ही लोग हैं जो गुरु जम्भेश्वर को जानते हैं जिन्होंने बिश्नोई समाज की नींव रखी। यह बिश्नोई समाज कितना आदर्शवादी समाज है जानकर सबको गर्व होगा। दुर्भाग्य है कि इस समाज को हम लोरेंस जैसे अपराधी के माध्यम से जान रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो यह चुनाव बिश्नोई होने और न होने के बीच हो रहा हो? नेता भी बिश्नोई मार्ग पर ही हैं। जितना नोटोरियस उतना ही बड़ा सेलिब्रिटी?
नेता अगर मर्यादित बात करने लग जाए तो समझिये वह न तो कड़ा नेता होगा और न ही बड़ा नेता होगा? भविष्य ख़राब है उसका? सत्य ईमानदार नेता मतलब जमानत जब्त। चुनाव में कितना उपहास होता है इनका। वोटकटबा होने का पुरस्कार तुरंत मिल जाता है जैसे वह कोई मुड़कटबा राक्षस हो। सत्य लज्जित है। निर्लज्जता आज के समाज का सत्य है। जैसा राजा वैसी प्रजा नहीं, बल्कि जैसी प्रजा होगी वैसा ही राजा होगा?
चुनाव में प्रतिसांस्कृतिक सूचनाओं को तरजीह न दें। इससे प्रभावित होने का अर्थ है इन्हें प्रोत्साहित करना। आओ अपने हिस्से के लोकतंत्र को पहले मजबूत करें। बाद की बात तो इसके बाद होगी। ऊंट मत बनिए। करबट क्रांति से दूर होइए। अवधारणा के खेल में जीवन की धारणा को धुसरित न करें।
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