भाजपा: भगवती जागरण पार्टी !

राजकीय संरक्षण सीधे तौर पर हिंदुत्व को समाप्त करने की साजिश

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बाबा विजयेन्द्र

‘सबसे बड़ा हिन्दू नेता कौन’ के लिए प्रतियोगिता जारी है। हिन्दू होना बड़ी बात है। कौन कितना बड़ा लम्पट यह कहना ज्यादा उचित होगा? असली हिन्दू सृजन का प्रतीक है, संहार का नहीं। हिन्दू होना मनुष्यता का पर्याय है। दुर्भाग्य से कथित हिन्दू नेताओं के एक से बढ़कर एक बयान सामने आ रहे हैं। अभी एक चैनल जिसको लोग ‘छि: न्यूज’ ही कहते हैं के एंकर को उछल-उछल कर एंकरिग करते देखा। हिंदुत्व जैसे गंभीर विषय पर ऐसी फूहड़ता कभी हमने देखी नहीं है। दो तीन मुस्लिम स्कोलर, दो तीन पंडित और कुछ धर्माचार्य? क्या सवाल करना है और किस लिए सवाल करना है, यह एंकर को भी पता नहीं था। इतना कन्फ्यूजड? बात तकनीकि थी तो उत्तर वैचारिक मांग रहा था। बात वैचारिक थी तो उसका तकनीकि उत्तर मांग रहा था। ऐसी उदंड पत्रकारिता की कल्पना नहीं की जा सकती है। भाजपा प्रवक्ता बोल रहे थे कि जननायक योगी जी ने इस बार नवरात्रि में मंदिरों को सजाने के लिए दो सौ करोड़ का फंड मुहैया कराया है। हर मंदिर इस नवरात्रि में खूब सजा हुआ हो, ऐसी इस जननायक की चाहत है?

बात उठी बारावफा की। बारावफा पर सख़्ती और नवरात्रि पर दो सौ करोड़? मुस्लिम स्कोलर बिल्कुल बली का बकरा नजर आ रहे थे। किनको क्या बोलना है यह अमूमन फिक्स ही रहता है। विषय को घुमाफिरा कर तुष्टिकरण और संतुष्टिकरण पर केंद्रित कर दिया। मेरी हिम्मत नहीं थी कि उस बकवास को और थोड़ी देर देखने की ?
चैनल पर गाजा, लेबनान, पाकिस्तान चर्चा न हो तो वह चैनल ही नहीं है। कुछ भी घटना घटे उसे मुसलमानों से जोड़ दो? योगी जी को ईद बकरीद से कोई मतलब नहीं है, कोई बात नहीं, पर चैनल के एंकर को बड़की माय होने की क्या जरुरत है? ये पालतू ही नहीं बल्कि फ़ालतू मीडिया हैं जो सेट एजेंडा पर बकवास करते हैं?
क्या सरकार का काम यही रह गया है? हिन्दू मुसलमान से बात शुरू होती है और यहीं पर आकर समाप्त होती है? राजनीति और राजनेता का स्तर इतना गिर जाएगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। देश में दंगा कराने का टेंडर टीवी चैनलों को मिल ही चुका है। भक्त तो सड़क पर है ही? अब यह नहीं मानेगा कुछ करके ही छोड़ेगा? घृणा और नफरत का बाजार गर्म किया जा रहा है।

अजान देना और आरती करना यह काम सरकार का नहीं है। सरकार सदन में कीर्तन करे, भंडारा करे, दीक्षा दे, भक्त बनाये और जगह-जगह प्रसाद बांटे? क्या सरकार का यह काम सही है? राजनीति को पहले अपना धर्म निभाना चाहिए। जो काम मठ और मंदिर का है, साधु और महात्मा का है, वह काम सरकार न करे। अधार्मिक-आचरण लेकर धार्मिक-अभियान में शामिल होना अशोभनीय है, इसे कतई सराहा नहीं जा सकता है।

यह काम समाज का है। क्या हिंदुत्व इतना दीन हो गया है कि इसे राज्याश्रय चाहिए ? क्या इसके बिना हिन्दुत्व जिन्दा नहीं रहेगा?

हजारों वर्षो तक हम गुलाम रहे। 1947 के पहले देश में परकीय शासन थे। हर स्तर पर राज्य का असहयोग था, बावजूद हिंदुत्व जिन्दा ही नहीं, बल्कि अधिक ताकत के साथ आगे बढ़ता रहा। जो समाज मंदिर को पवित्र मानता है। यह उसकी जिम्मेवारी है अपने देवस्थान को भव्य बनाने का। सरकार का हस्तक्षेप साबित करता है कि हिंदुओं का मंदिर से आकर्षण ख़त्म हो रहा है। सरकार नहीं बल्कि इस काम के बारे में समाज सोचे। आस्था और विश्वास क्या राजसत्ता के बल पर आगे बढेगा? जो काम समाज का है उसे ही करने देना चाहिए। हिंदुत्व दर्शन का विषय है, प्रदर्शन का नहीं। राजनीति, धर्म का दर्जा गिरा रही है। किसी फंड के बल पर हिंदुत्व अगर जिन्दा होगा तो ऐसे हिंदुत्व को ख़त्म हो जाना चाहिए। क्या ईश्वर प्राप्ति का मार्ग योगी मोदी तय करेंगे या संत तय करेंगे? हिंदुत्व को जीने से हिंदुत्व जिन्दा होगा, बोलने से नहीं। सिंदूर की कीमत सरकार बताएगी? सुहागरात का प्रोस्पेक्टस क्या पॉलिटिक्स देगी? हिंदुत्व को न तो आरक्षण की जरुरत है, न ही संरक्षण की। राजकीय संरक्षण सीधे तौर पर हिंदुत्व को समाप्त करने की साजिश है। जाहिलों का क्या कहना, वह तो ताली बजायेगा ही। इन किन्नरों से कोई क्रांति संभव नहीं है। हिन्दू नवजागरण की इनसे अपेक्षा करना मूर्खता होगी। राजनीतिक प्रश्नों का उत्तर राजनीति से ही दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य है कि इनके पास कोई उत्तर नहीं है। यह बेसहारा है। धर्म का सहारा लें, इस पर भी कोई आपत्ति नहीं है, पर इसका बेजा इस्तेमाल बहुत ही डराबना है। धर्मसत्ता को निसहाय बनाकर राजसत्ता मनमानी करे, इसका प्रतिरोध होना चाहिए।

गांधी की समझ थी कि राजनीति अगर धर्म से नहीं जुड़ेगी तो वह अधार्मिक हो जाएगी। लेकिन गांधी किसी कर्मकांड की बात नहीं करते हैं, बल्कि आध्यात्मिक- चेतना की बात करते हैं। सरकार सद्गुरु को धर्मगुरु समझ लेती है। रिचूअल्स ही इनकी नजर में रिलीजन है। स्प्रिचूअल को घसीट कर सरकार रिचूअल्स तक ले आती है? सम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता एक ही रस्सी के दो छोड़ हैं। दोनों की आदत में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। यह एक वैचारिक दासता है। कोई गीता से चिपक जाए और कोई मार्क्स से, चिपकना इनकी नियति है।

वर्तमान राजनीति धर्मनिरपेक्षता के पाखंड को भलीभांति समझती है। धर्मनिरपेक्षता के पाखंड ने भाजपा को जन्म दिया है। फरमान नादिरशाह का हो या अमित शाह का, समाज इसे स्वीकारने को मजबूर है। बात वर्तमान की होती है तो भाजपा इतिहास सामने कर देती है। हकीकत है कि सेकुलरिस्टों का इतिहास भी दोहरेपन का शिकार रहा है। ये किस मूँह से योगी का विरोध करेंगें? यह तो होना ही था। धर्म की ग्लानि इस राजनीतिक अवतार से दूर नहीं होगी। धर्म की रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र की जरुरत होती है, सत्ता-समीकरण की नहीं।

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