आक्समिक नही है नेताओं का चारित्रिक अवमूल्यन

पूंजीवादी व्यवस्था के दौर में गुलाम राजनेता

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ब्रह्मानंद ठाकुर

एक समय था जब किसी के लिए नेता संबोधन सुनते ही उनके प्रति मन मे श्रद्धा भाव पैदा हो जाता था। सुभाषचन्द्र बोस तो नेताजी शब्द के पर्याय ही हो गये थे। नेता का मतलब है जो नेतृत्व करें। जनता का सही मार्गदर्शन करें। राष्ट्र को उन्नति के शिखर पर ले जाएं। भले ही इसके लिए उसे कोई भी कुर्बानी देना क्यों न पड़े। नेतृत्व का मतलब होता है, समाज की, देश की निस्वार्थ भाव से सेवा करना। इसके बदले उसमें शोहरत और प्रसिद्धि की तनिक भी आकांक्षा नहीं होती है। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, धन-दौलत, दु:ख-तकलीफ, अच्छा-बुरा, सभी को जो देश के लिए, शोषित वर्ग के हित के लिए न्योक्षावर कर दे, वहीं असली नेता हैं। यह कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही कठिन। ऐसा करना कबीर के शब्दों में ‘जो घर जारे आपना चले हमारे साथ’ के समान है।

अब थोड़ा पीछे मुड़ कर देखते हैं। देश में आजादी आंदोलन चल रहा था। अपने नेता के आह्वान पर झुंड के झुंड युवक व युवतियां आंदोलन में शामिल हो रहे थे। अपने प्राणों की आहुति दे रहे थे। उनके दिलों में अपने नेताओं के प्रति बड़ा सम्मान भाव था। तब नेताओं में खुदगर्जी की कोई भावना नहीं थी। पद का मोह नहीं था। था तो सिर्फ देश को गुलामी से मुक्ति का जुनून। बड़ी कुर्बानियों के बाद आजादी हासिल हुई। इसी के साथ ही राजनीतिक दलों एवं उसके नेताओं में धीरे-धीरे खुदगर्जी, व्यक्तिगत स्वार्थ और शोहरत पाने की महत्वाकांक्षा भी पैदा हुई। इसी महत्वाकांक्षा के वशीभूत हो नेताओं ने वंश वाद, परिवार वाद को बढ़ावा देना शुरू किया। महत्वाकांक्षा जब हावी हो गई तो चरित्र में अवमूल्यन शुरु हो गया। यह अवमूल्यन लगातार जारी है। आजादी आंदोलन में अपने नेताओं को देखते ही आम लोगों में उनके प्रति स्वाभाविक श्रद्धा उम्र पड़ती थी। आज नेताओं को देख लोग घृणा से मुंह बिचकाने लगते हैं।

ऐसा आक्समिक रूप से नहीं हुआ है। इसके पीछे के कारणों को समझने की जरूरत है। यह समझ ऐतिहासिक और वैज्ञानिक दृष्टि से ही हासिल हो सकेगी।वरना हम बराबर छले जाते रहेंगे। किसी भी वर्ग विभाजित समाज में व्यक्ति का चरित्र इस बात पर निर्भर करता है कि वह व्यक्ति जाने-अंजाने किस वर्ग के हितों का रक्षक है। आज मरनासन्न पूंजीवादी व्यवस्था के दौर में इसके गुलाम राजनेता घोर भ्रष्टाचारी, पाखंडी और धोखेबाज बन चुके हैं। जिस तरह पूंजीपति न्याय-नीति की परवाह किए बिना मिहनतकशों का शोषण करते हुए अकूत मुनाफा कमाने में लगे हुए हैं, ठीक उसी तरह राजनेता भी पूंजीपतियों को खुश रखते हुए, शोषण, अत्याचार और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं। जाहिर है, ऐसे नेताओं के प्रति जन मानस में घृणा का भाव तो रहेगा ही।

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
Character devaluation of leaders
ब्रह्मानंद ठाकुर
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