डॉ. योगेंद्र
होने का कुछ भी हो सकता है। जब पैंतीस वर्ष का पुत्र सत्तर वर्षीया माँ को पीट-पीट कर हत्या कर सकता है और घर में ही धरती के अंदर गाड़ सकता है, प्रेमिका को टुकड़े-टुकड़े में काट कर फ्रिज में रख सकता है, नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार हो सकता है तो क्या नहीं हो सकता है? हत्या-वत्या तो आम बात है। कोई भी किसी की हत्या कर सकता है। सुरक्षा के बाड़े में भी आप सुरक्षित नहीं हैं। चाँद पर जाना अच्छी बात है। गगनबिहारी बनने में दिक़्क़त कहाँ है! आसमान में उछलते कूदते रहिए, सागर में भी गोते लगाइए, कोई बात नहीं। लेकिन घर में जो जानमारू हलचल है, उससे आँखें नहीं मोड़िए। प्रो साईंनाथ को आपने मार दिया। पैरों से इस अपंग प्रोफ़ेसर ने तो ऐसे ही हलचल के संबंध में आपसे सवाल ही किया था। उन्हें दस वर्ष तक कैदखाने में डाल दिया। दस साल बाद कोर्ट ने कहा कि प्रोफ़ेसर की कोई गलती नहीं है। जेल से वे निकले। किडनी बर्बाद कर दी गयी थी और वे चल बसे। उनके दस साल जिसने छीने, उन पर मुक़दमा क्यों नहीं चला? जिसने झूठे सबूत जमा किये, उन्हें कम से कम दस साल की सजा तो होनी चाहिए। ऐसे तमाम मुक़दमों में जिसमें पुलिस और सत्ता के द्वारा झूठ चिपकाया गया, उन्हें सजा ज़रूर मिलनी चाहिए।
देश में हज़ारों प्रोफ़ेसर हैं, मगर पी साईंनाथ नहीं के बराबर हैं। प्रोफ़ेसर होने मात्र से तमग़ा लग जाता है कि वह बुद्धिजीवी है। बुद्धि पर जीना अलग बात है, बुद्धि को समाज के लिए इस्तेमाल करना दूसरी बात। जो बुद्धि खुद तक ही सीमित रखती है, वह बुद्धि निरर्थक ही है। ऐसी बुद्धि मनुष्यत्व को क्षतिग्रस्त करती है। बुद्धि का यह संकोच ही उपरोक्त घटनाओं के पीछे सक्रिय रहता है। बुद्धि बुद्ध से बना है। वैसे बुद्ध से बुद्धू भी बना है। बुद्ध स्थिर चित्त हो गये। लोभ, मोह, छल, छद्म से मुक्त। जिधर चले, उनके साथ लोग चले। जहॉं रूके, सबके लिए रूके। बुद्ध का रास्ता जिन्हें पसंद आया, वे उनके प्रशंसक हुए और जिन्हें पसंद नहीं आया, वे निंदक हुए। निंदक लोग ही बुद्धू शब्द के जन्मदाता हैं। आधुनिक काल में जैसे महात्मा गाँधी की हत्या की गई, वैसे ही बुद्ध के विहारों को एक-एक कर रौंद दिया गया। भारत में जिस भी महान मंदिर को खोदो, विहार के भग्नावशेष मिलेंगे। हद तो यह है कि बोधगया के उस विहार में भी लोगों ने देवी- देवताओं को प्रवेश करवा दिया है, जहॉं बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ। जगन्नाथ पुरी की दीवारों पर उकेरे गये चित्र को सिर्फ़ देख लीजिए। आपको अंदाज़ा हो जायेगा कि वस्तुतः यहाँ क्या हुआ करता था।
इस देश ने अगर विश्व को बुद्ध और गाँधी दिया है, तो नृशंस लोगों की जमात भी दी है। गीता ने घोषणा की कि आत्मा अजर अमर है। वह न जल सकती है, न पानी में डूब सकती है। कोई इसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। लेकिन इस देश में तो आत्मा थरथराती रहती है। पी साईंनाथ को आत्मा में भरोसा नहीं था। वे वस्तुवादी थे, मगर वे डरे नहीं, हिले नहीं, थरथराये नहीं, डिगे नहीं। सत्ता तंग करती रही, लेकिन उन्होंने माफ़ी नहीं माँगी। वे लाल थे, तो लाल बने रहे। देश की लाल। वे न पीले हुए, न गेरुआ, न केसरिया। यहाँ तो रंग बदलने वाले बहुत हैं। रूसी कथाकार ने एक कहानी लिखी है- गिरगिट । हमारे देश में गिरगिट की नयी प्रजाति ने जन्म लिया है। हर मोड़ पर गिरगिट। मज़ा यह है कि गिरगिटों का ‘सम्मान‘ भी है। जो आजकल बड़े नहीं हैं, बड़े पोस्ट पर हैं, उनके यहाँ गिरगिटों का बहुत सम्मान है। शेष जो बुद्धिजीवी हैं, वे मज़े से अपने-अपने दड़बों में आनंदित हैं। बीबी बच्चों के साथ। देश विदेश का टूर कर रहे हैं। इस देश को आख़िर बुद्धत्व प्राप्त हुआ, तो मूर्खत्व की प्राप्ति भी होगी न!
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)