डॉ योगेन्द्र
दुर्गा पूजा ख़त्म हो गया। सड़कों पर उमड़ी भीड़ अपने-अपने घरों में सिमट गई। वे बैनर, पोस्टर, सजावट सबके सब धुँधले पड़ गये। जगह वही है, स्थान ज़रा भी नहीं खिसका, लेकिन एक सजी दुनिया खिसक गई। लोगों ने दुर्गा प्रतिमा के समक्ष सिर झुकाये, बताशे चढ़ाये। हाँ, रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण को भी लोगों ने भूला नहीं और उनके लंबे-लंबे स्ट्रैक्चर खड़े कर जलाये गये। आतिशबाजी भी जम कर हुई। प्रचारित यह किया गया कि ऐसा कर हमने अन्याय पर न्याय की जीत हासिल की। रावण अन्यायी था, इसलिए उस पर हर साल विजय प्राप्त करना ज़रूरी है।
रावण क्या सचमुच अन्यायी था? यह सही है कि उसने सीता का हरण किया, लेकिन उसने सीता के साथ कोई बदतमीज़ी नहीं की। उसने तो सीता को हर लिया था, ज़ोर-ज़बर्दस्ती भी कर सकता था। आख़िर कौन उसे रोकता? सीता अकेली थी। उसकी रक्षा करने वाले तो वृक्षों से लिपट कर सीता का पता पूछ रहे थे – हे खग, मृग हे, मधुकर श्रेनी/ तुम देखि सीता मृगनैनी। लेकिन रावण ने ऐसा कुछ नहीं किया। सीता को अशोक वाटिका में रखा और उस पर पहरेदार भी तैनात किया कि सीता सुरक्षित रहे। आज सड़कों और थानों में भी सीता सुरक्षित नहीं है। जो संसद में क़ानून बनाते हैं, उनमें से कइयों पर बलात्कार के आरोप हैं। रावण में इतनी नैतिकता तो शेष थी! उसने स्त्री के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ तो नहीं किया? और फिर रावण ने सीता का अपहरण क्यों किया? लक्ष्मण ने रावण की बहन शूर्पणखा के नाक-कान काट डाले। शूर्पणखा ने क्या किया था? उसने तो शादी का प्रस्ताव दिया था। शादी करनी है या नहीं करनी है, इसका फ़ैसला राम या लक्ष्मण को लेना था। शूर्पणखा के प्रस्ताव को सहज ही अस्वीकार किया जा सकता था। शूर्पणखा के नाक-कान काटना कहाँ से सही था? बहन के नाक कान काटने पर कोई भाई बदला लेने की बात सोच सकता है। रावण ने तो सीता के न नाक-कान काटे, न दुर्व्यवहार किया। तब भी रावण दुराचारी है।
हम बच्चों को पढ़ाते हैं, सुर और असुर का अर्थ। सुर माने देवता, असुर माने राक्षस। सुर दिव्य और श्रेष्ठ, असुर कुरूप और नीच। इन्द्र वैदिक काल में सबसे बड़े सुर हैं। इन्द्र सुरापान करते हैं। सुर वे हैं जो सुरापान करते हैं। असुर वे हैं, जो सुरापान नहीं करते। कालांतर में सुर और असुर के अर्थ बदल गये। सुरापान करने वाला पूजनीय हुआ और जो सुरापान नहीं करता था, वह नफ़रत करने लायक़। इन्द्र का एक नाम पुरंदर है। पुर मतलब क़िला। इन्द्र वह है जो क़िले को तोड़ता है। वैदिक काल में ये क़िले किसके थे? कम से कम सुरों के तो नहीं थे। अगर उनके रहते तो इंद्र उसे क्यों तोड़ता? इंद्र न केवल उसे तोड़ता है, बल्कि उसे लूटता है और अपने लोगों के बीच रथ, संपत्ति आदि बाँटता है।
पूरे ग्रंथों का पुनर्पाठ की ज़रूरत है। दुर्गा सदियों से महिषासुर के कलेजे में बर्छा भोंक कर प्रसन्न है। असुर में महिष को भी शामिल कर दिया है। महिष यानी भैंसा। भैंसा और असुर को जोड़ कर एक ऐसा कुरूप और भद्दा स्वरूप निर्मित किया गया कि जिसे देख कर नफ़रत ही पैदा होती है। हमने नफ़रत का बाज़ार खोल रखा है। आज हमारे जीवन में नफ़रत ही नफ़रत है। प्रेम के लिए कितनी कम जगह बची है। हर वर्ष रावण को मार कर अट्टहास करते हैं। रावण ने सोने की लंका बनायी थी। सीता भी मारीच को सोने का समझ लिया। वह ज़िद पर उतर आयी कि उसे वह चाहिए ही चाहिए। जंगल में सोने का क्या काम? मगर लोभ तो लोभ है। सोने के लोभ ने कितने कत्ल कराये। आज भी क्या हो रहा है? सोने का लोभ ने ही तो दुनिया को तबाह कर रखा है। हम अपने परंपरा से सीखते कम हैं। केवल दुहराते हैं, रट्टू मल की तरह। राम, रावण और सीता की कथा के पीछे जो भी सच्चाई हो, मगर हम महज भव्यता का प्रदर्शन कर रहे हैं। अगर आप अन्याय पर न्याय की विजय मानते हैं तो अपने जीवन और आसपास को देखिए और फ़ैसला कीजिए कि आख़िर जीत कौन रहा है- न्याय या अन्याय?
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)