आदमखोर दुनिया में हम-तुम

भारत पश्चिमी दुनिया की चकाचौंध में खो गया है

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डॉ योगेन्द्र
हम कैसी दुनिया बना रहे हैं? क्या इस दुनिया में मानव रह पायेगा? पानी बोतल में बंद किया जा चुका है। हवा सिलेंडर में बंद किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि न पानी शुद्ध बचा है, न हवा। भोजन में क्या-क्या नहीं है। कोई दावा नहीं कर सकता कि हम शुद्ध भोजन गले के नीचे उतार रहे हैं। धरती पर प्रदूषण, पॉलीथीन की भरमार। पहाड़ और जंगलों को भी नहीं छोड़ रहे। नतीजा है कि एक-एक कर जीवों के स्वभाव और प्रकृति बदल दे रहे हैं। राजस्थान के गोगूंदा जंगल में पैंथर आदमी का शिकार कर रहा है। एक पैंथर सात आदमी को मार कर खा चुका है। पैंथर का फ़ूड चेन बिगड़ गया है, उसे खाने के लिए शाकाहारी जीव नहीं मिल रहे, नतीजा है कि मनुष्य को ही चबाने लगा है। दांत में मनुष्य का रक्त लग गया है। वैसे रक्त के छींटे जहॉं तहाँ उड़ ही रहे हैं।
पैंथर ने सात मनुष्य का शिकार किया और अब उसे मारने के लिए वन विभाग ने अपने सिपाही तैनात कर दिया है। आज न कल मारा ही जायेगा। लेकिन हमारी जो अर्थ व्यवस्था है, वह किसी आदमखोर पैंथर से कम नहीं है। एक केंद्रीय मंत्री का कहना है कि पचहत्तर सालों में पहली बार भारत की प्रति व्यक्ति आय 2730 डालर हुई। प्रति व्यक्ति आय का खेल भी अजीब है। अडानी की आय, मेरे जैसे पेंशन धारी की आय और ठेला खींचने वाले की आय को तीन से भाग दे दीजिए तो वह प्रति व्यक्ति आय है। यह सच नहीं है। भयावह असमानता में खुश होने के झूठे बहाने और महज लफ्फेबाजी है। भारत की जितनी आय है, उसमें भारत की जनसंख्या से भाग दीजिए। यह प्रति व्यक्ति आय है। यह कहाँ का इंसाफ़ है? जिसके पास जो संपत्ति नहीं है, उसे उसके नाम काग़ज़ पर कर दीजिए। इस लफ़्फ़ाज़ी के बावजूद विश्व में भारत प्रति व्यक्ति आय में 136 वें स्थान पर है। मज़ा यह है कि अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय तक पहुँचने में भारत को और पचहत्तर वर्ष लगेंगे। जब तक भारत वहाँ पहुँचेगा, तब तक अमेरिका और कहीं पहुँच जायेगा। वह आख़िर बैठा तो नहीं रहेगा कि भारत आयेगा तो चलेंगे।

दरअसल भारत के विकास के लिए यह रास्ता ही नहीं है। भारत पश्चिमी दुनिया की चकाचौंध में खो गया है। महात्मा गांधी ने चेताया था, लेकिन हमने उनकी नहीं सुनी। हमने पश्चिम की चमक को देखा और अपना रास्ता भूल गये। हम चाहते तो विश्व को रास्ता दिखा सकते थे, लेकिन हम खुद बंद गली के अंतिम मकान पर पहुँच गये। ऐसे अंखमुन्ना विकास की वजह से ही हम क़र्ज़ में डूब रहे हैं। गाँव और देहात का पैसा शोषण कर शहर में बैठे आदमखोर पूँजीपतियों के हवाले कर रहे हैं और इसे ही विकास का नाम दे रहे हैं। गाँव की आमदनी से गाँव का विकास नहीं कर रहे, बल्कि पहले उस आमदनी को पटना, दिल्ली लाते हैं और फिर चुल्लू भर आमदनी जब गाँव भेजते हैं तो रास्ते में नेता, अफसर, ठेकेदार लूट लेते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने कभी कहा था कि एक रूपया जब गाँव भेजा जाता है, तो सिर्फ़ पंद्रह पैसा गाँव पहुँचता है। पैसे की इस आवाजाही में सिर्फ़ लूट ही लूट है। आज ज़रूरत इस बात की है कि अर्थव्यवस्था के इस भ्रम को तोड़ा जाय और नयी अर्थव्यवस्था की संरचना खड़ी की जाय। आदमखोर पैंथर से ही नहीं, आदमखोर अर्थ व्यवस्था से भी मुक्ति ज़रूरी है।

world economy and pollution
Dr. Yogendra

 

 

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदे है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)

 

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