मुंशी प्रेमचंद की यादें

अपनी कृतियों के कारण प्रेमचंद आज भी जीवित हैं

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ब्रह्मानंद ठाकुर
कल महान कहानीकार, उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद की 88 वीं पुण्य तिथि थी। इस कालजयी साहित्यकार ने 8 अक्टूबर,1936 को अपने नश्वर देह का त्याग किया था। वे मरकर भी अमर हो गये। ‘कीर्ति यस्य स जीवति’। अपनी कृतियों के कारण प्रेमचंद आज भी जीवित हैं। जीवित ही नही, पूरी तरह से प्रासंगिक भी।

प्रेमचंद की यह प्रासंगिता भारत को शोषण मुक्त, वर्ग विहीन और धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनाने की बात कहने वाले राष्ट्र नायकों के लिए बड़ी चुनौती है। ऐसा इसलिए कि भारतीय समाज को प्रेमचंद के सपने वाला समाज अब तक नहीं बनाया जा सका। ऐसा जबतक नहीं हो जाता, प्रेमचंद की प्रासंगिकता बनी रहेगी। सवाल हो सकता है कि प्रेमचंद आखिर कैसा समाज बनाना चाहते थे? इसका जबाव उनके विपुल साहित्य में मिलेगा । उसे पढ़ने और उनके सपनों का समाज निर्माण की दिशा में अपना-अपना कर्तव्य निर्धारित करने की जरूरत है। प्रेमचंद धन और धर्म पर आधारित समाज व्यवस्था के कभी भी पक्षधर नहीं रहे। वे आजीवन बिना किसी भेद-भाव के सभी को नि:शुल्क शिक्षा, किसान-मजदूरों को शोषण से मुक्ति और महिलाओं को पूरे आत्मसम्मान के साथ जीने का अवसर देने के लिए अपनी आवाज बुलंद करते रहे। वे सत्ता नहीं, व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे। इसके लिए वे क्रांति चाहते थे। तभी तो ‘कर्मभूमि’ का अमरकांत कहता है, ऐसी क्रांति जो सर्वव्यापक हो, जो जीवन के मिथ्या आदर्शों का, झूठे सिद्धांतों का, परिपाटियों का अंत कर दे, जो एक नये युग की प्रवर्तक हो, एक नई सृष्टि खड़ी कर दे, जो धन और धर्म के आधार पर टिकने वाले राज्य के पंजे से मुक्त कर दे।’ प्रेमचंद सम्पत्ति संग्रह की भावना को तमाम बुराइयों की जड़ मानते थे।

उन्होंने कहा है, “सम्पत्ति ने मनुष्य को क्रीतदास बना लिया है। उसकी सारी मानसिक आत्मिक और दैहिक शक्ति केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है। मरते दम तक भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय, इस सम्पत्ति का क्या हाल होगा। हम सम्पत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं। हम विद्वान बनते हैं सम्पत्ति के लिए, गेरुए वस्त्र धारण करते हैं सम्पत्ति के लिए। घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भाँति-भाँति के वैज्ञानिक हिंसा-यन्त्र क्यों बनाते हैं? वेश्याएँ क्यों बनती हैं, और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है। जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन नहीं होगा, जब तक सम्पत्ति व्यक्तिवाद का अन्त न होगा, संसार को शान्ति न मिलेगी।”

memories of Munshi Premchand
Brahmanand Thakur
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
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