जीवन का मूल्यबोध दौलत नहीं, इंसानियत है

क्यों लोग खुदगर्ज, अत्याचारी, भ्रष्टाचारी बन रहे हैं

0 17

ब्रह्मानंद ठाकुर
आज दौलत अर्जित करने के लिए आपाधापी मची हुई है। दौलत, दौलत, दौलत चाहे कैसे भी हो, दौलत अर्जित करना है। क्यों नहीं? दौलत से ही शोहरत मिलती है। यही शोहरत हासील करना जीवन का चरम लक्ष्य बन चुका है। शिक्षा का उद्देश्य भी दौलत जमा करना भर रह गया है। जितनी ऊंची डिग्री, उतनी बड़ी दौलत। पहले शिक्षा का उद्देश्य था चरित्र निर्माण। जब मैं गांव के बेसिक स्कूल में पढ़ता था, तो वहां कार्यालय कक्ष के बाहर लिखा था ‘सा विद्या या विमुक्तये’। तब मेरा बाल मस्तिष्क उसका अर्थ समझ नहीं पाया था।
आज सोचता हूं, उन चार शब्दों में शिक्षा का व्यापक उद्देश्य निहित था। आज शिक्षा का अर्थ हो गया है ‘सा विद्या या नियुक्तये’। शिक्षा वही है जिससे नौकरी मिले। शिक्षा का यही उद्देश्य आज मुख्य है जो कतई उचित नहीं है। आज जो शिक्षा दी जा रही है वह ऐसी ही शिक्षा है। व्यक्ति को खुदगर्ज बना देने वाली शिक्षा। यह शिक्षा हमें हर हाल में चाहे खुद को बेंच कर हो, नीति-नैतिकता, मानवीय मूल्यबोध और आदर्शों को बेशक तिलांजलि देना पड़े, अर्थोपार्जन के लिए प्रेरित करती है। लेकिन दौलत के शिखर पर आसीन हो जाने से महान चरित्र हासिल नहीं किया जा सकता। जीवन का मूल्यबोध धन-दौलत, शोहरत और ऊंची डिग्रियों से हासिल नहीं होता। थोड़ा इतिहास के पन्ने पलट कर देखने से समझ जाइएगा।
कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र राज कुमार सिद्धार्थ को किस बात की कमी थी? सुंदर, सुशील पत्नी थी, यार-दोस्त थे, भौतिक सुख के तमाम साधन थे। तो फिर इन सभी को छोड़ कर क्यों उन्होंने महाभिनिष्क्रमण किया? इसलिए कि उनके पास मानवीय संवेदना थी। वृद्ध, बीमार और श्मशान लिए जा रहे लाश को देख उनका संवेदनशील मन आहत हो गया था। वे जरा, रोग और मरण से मुक्ति दिलाने वाले मार्ग की खोज में सबकुछ त्याग कर घर से निकल पड़े। बुद्ध हो गये। उन्हें श्रद्धा से आज भी याद किया जाता है।
ज्यादा नहीं, केवल सौ साल पहले की बात है, नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने पीसीएस की नौकरी को लात मार कर आजादी की लड़ाई में जब शामिल हो गये थे तब इसके पीछे भी उनके मन में देश के शोषित-पीडित जनता को शोषण-अत्याचार से मुक्ति दिलाने की भावनाएं हिलोरें मार रहीं थीं। एक लम्बी फेहरिस्त है, व्यापक जन हित में अपने आपको समर्पित कर देने वाले राष्ट्र नायकों की। इन लोगों ने ऐसा करते हुए अपने निजी सुख-सुविधा की तनिक भी चिंता नहीं की। अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। आज मर कर भी वे अमर हैं।
सवाल है कि जब अतीत में ऐसे महान चरित्रवान लोग पैदा हो चुके हैं, तो आज हमारे समाज में इस क्षेत्र में शून्यता की स्थिति क्यों है? क्यों लोग खुदगर्ज, अत्याचारी, भ्रष्टाचारी बन रहे हैं? इसका जवाब हमें इस व्यवस्था में तलाशना होगा, जिसमें हम रह रहे हैं। आज जीवन के हर क्षेत्र में अनिश्चितता की स्थिति है। न शिक्षा की गारंटी न स्वास्थ्य की, न नौकरी और रोजी-रोजगार की। जिंदगी की भी गारंटी नहीं। इस अनिश्चितता की स्थिति में ज़िंदगी एक रेस कोर्स में बदल गई है। समाज में स्वस्थ जीवन जीने का माहौल खत्म हो गया है। इस स्थिति से मुक्ति का सवाल वर्तमान शोषण मूलक व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। जरूरत इस बात की है कि हम अपने महापुरुषों से प्रेरणा लेते हुए व्यापक जनहित में अपना कर्तव्य निश्चित करें। यह तभी संभव है जब जीवन का उद्देश्य दौलत नहीं, मानवीय मूल्य होगा।

The value of life is not wealth, it is humanity
Brahmanand Thakur
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
Leave A Reply

Your email address will not be published.