आज बात प्रेम-मुहब्बत की
हम बगैर किसी भेद भाव के हर किसी से जब प्रेम करने लगेंगे, उसी दिन यह धरा स्वर्ग से भी सुंदर हो जाएगी।
ब्रह्मानंद ठाकुर
हालांकि मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, उसका पर्याय मुहब्बत हरगिज़ नहीं। यह प्रेम वह इश्क भी नहीं जिसकी चर्चा आज कल सरेआम होती है, गांव की गलियों में, चौराहे पर, बगीचे में, दरिया किनारे और स्कूल कालेजों में भी। सर्वत्र ! प्रायः युवा छात्र प्यार-मुहब्बत और यौन सम्बंधों को एक समान देखते हैं। यौन सम्पर्क तो जानवरों में भी है। वेश्यालयों में भी। सवाल है कि क्या यह प्यार का सूचक हो सकता है? यह सच है कि यौन सम्बंधों से प्यार-मुहब्बत की उत्पत्ति होती है। कभी-कभी नहीं भी होती है। जहां यौन सम्पर्क में मर्यादा, आदर्श, रुचि-संस्कृति और कर्तव्य बोध है, वहीं है सच्चा प्रेम।
इसे यदि देखना हो तो प्रेमचंद और शरतचन्द्र के साहित्य में देखें। सच्चा प्यार कमजोरी नहीं, ताकत देता है। किसी के प्रति अपने प्यार को शब्द देते हुए उसे अपनी कमजोरी मत समझिए। प्यार मोह भी नहीं है।आदर्श, मूल्यबोध और मर्यादा विहीन प्रेम, प्रेम नहीं मानसिक विकृति है। तमाम तरह के खुराफातों की जड़। इसकी जद में युवा और युवतियां ही नहीं, जवान और बूढ़े भी हैं। विस्तार में जाने से जो कहना चाहता हूं, कह नहीं पाऊंगा। प्रेम विपरीत लिंगों का दैहिक आकर्षण भी नहीं। प्रेम करना जीवों का प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक गुण है। इसमें एक दूसरे की बेहतरी के लिए समर्पण का भाव छिपा है।————- बसुधैव कुटुम्बकम्।
कबीर ने प्रेम को ढाई आखर का कहा है। कबीर के कथन में दम है। प्रेम विद्वता का मूल है। पुस्तकें पढ़ने से पंडित तो हुआ जा सकता है, प्रेम का सार तत्व ग्रहण कर उसे अपने आचार और व्यवहार में परिणत नहीं किया जा सकता। हां, अपनी विद्वता का धौंस जरूर जमाया जा सकता है। व्यक्ति के आचरण, बोल-चाल और व्यवहार में यदि प्रेम की झलक नहीं मिलती तो वह व्यक्ति चाहे खुद को प्रेम तत्व से भरपूर होने का कितना भी दावा करें, उसमें प्रेम का भाव लेस मात्र भी नहीं है। ‘प्रेम गली अति सांकरी ता में दोउ न समाय’ कहा होगा किसी ने! रही होगी उसकी कोई परिस्थिति।
वास्तविक प्रेम तो वह है जो समष्टि को खुद में समाहित कर लें। यह शीष अर्पण से प्राप्त नहीं होता बल्कि सिर उठा कर चलने की ताकत देता है। यह प्रेम भाव पोथी पढ़ने से नहीं पैदा होता, हृदय की विशालता ही इसका उत्स है। प्रेम पूर्ण भी नहीं होता। अपूर्ण प्रेम ही सच्चा प्रेम है। जिस प्रेम की प्यास कभी तृप्त न हो। प्रेमी के बिछुड़ने से यह महसूस होने लगे कि नहीं, हमें और साथ रहना चाहिए, और, और, और। तभी वह सच्चा प्रेम होगा। यही अतृप्ति भाव तो प्रेम है। मैंने प्राणि मात्र से प्रेम करने की बात कही है। इसका तात्पर्य है कि हम बगैर किसी भेद भाव के हर किसी से जब प्रेम करने लगेंगे, उसी दिन यह धरा स्वर्ग से भी सुंदर हो जाएगी। तो आइए, कबीर के ढाई आखर प्रेम को आत्मसात कर हम एक नई दुनिया बनाने मे जुट जाएं तभी हमारा बसुधैव कुटुम्बकम् का सपना साकार हो सकेगा।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)