प्रशांत किशोर के नाम एक चिठ्ठी
व्यवस्था परिवर्तन के लिए दीर्घकालीन आंदोलन की जरूरत होती है
प्रिय प्रशांत किशोर जी,
आपके नाम मैं यह चिठ्ठी न खून से लिख रहा हूं, न स्याही से। यह चिठ्ठी बिहार के करोड़ों निर्धन, शोषित, पीडित, दलित, और वंचितों की आह से उत्पन्न, पीड़ा जब मेरे जेहन में घनीभूत हो गई तब मैं बिना कागज, कलम, स्याही के (क्योंकि प्रगति की दौर में खत लिखने का तरीका बदल गया) अपने छोटे से एंड्राइड मोबाईल पर उसे अभिव्यक्त कर रहा हूं।
आप अपने लाव लश्कर के साथ पूरे बिहार का भ्रमण कर चुके हैं। इसकी असलियत भी जान ही चुके होंगे। शायद तभी तो आपने गांधी जयंती पर जन सुराज पार्टी का गठन किया है। कुछ नौकरशाहों को ससम्मान अपने दल में शामिल किया है। यह आपका अधिकार है। शराब बेंचवा कर उस पैसे से बिहार के गरीब माता-पिता के संतानों को अच्छी शिक्षा देने की बात कही है। रोजगार के लिए, गांव से पलायन करने वाले बेरोजगार युवकों को अपने ही राज्य में रोजी-रोजगार देने का सपना दिखाया है। ऐसा ही सपना देश की जनता को गांधी, बिनोवा, जयप्रकाश, अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल भी दिखा चुके हैं। क्या वह सपना पूरा हुआ? ऐसे सपने अक्सर पूरे नहीं होते प्रशांत किशोर जी, जो सिर्फ भावनाओं के धरातल पर ही देखे और दिखाए जाते हों। किसी भी वर्ग विभाजित समाज में ऐसे सपनों को पूरा करने के लिए इतिहास से प्रेरणा ग्रहण करते हुए सही राजनीतिक विचारधारा के आधार पर संगठन बना कर व्यवस्था परिवर्तन के लिए नीति और कार्यक्रम तेयार किए जाते हैं। यह इसलिए कि सिर्फ सत्ता बदल देने से व्यवस्था नहीं बदलती।विश्वास न हो तो आजादी के बाद से अबतक की स्थितियों का सिंहावलोकन कर लीजिए।
प्रशांत किशोर जी ! व्यवस्था परिवर्तन के लिए दीर्घकालीन आंदोलन की जरूरत होती है। यह काम कठिन तो है मगर असम्भव नहीं। आप खूब अच्छी तरह जानते हैं कि आमजनता, युवा और छात्र शक्ति में आई नैतिक गिरावट के कारण वे रुपये-पैसे पर, नौकरी व रोजगार के प्रलोभन में, धमकी और गुंडागर्दी के भय से खुद को बेंच रहे हैं। इसी का फायदा पूंजीवाद परस्त राजनीतिक दल उठा रहे हैं। आपको चाहिए था कि पहले नीति-नैतिकता के इस संकट से छात्र-युवाओं और जनशक्ति को उवार कर समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने की शुरुआत करते। कभी जयप्रकाश ने भी ऐसा ही माना था।
आपके मन में सवाल हो सकता है कि क्या व्यापक स्तर पर ऐसा कर पाना सम्भव है? यह बात सही है कि वर्तमान पूंजीवादी समाज व्यवस्था ही इस नैतिक और चारित्रिक गिरावट का मूल कारण है। इस व्यवस्था को बनाए रखते हुए जहां एक ओर युवाओं में उच्च नैतिकता, उन्नत मानवीय मूल्यबोध से लैस किया जाएगा, दूसरी और लाखों युवा सांस्कृतिक और नैतिक पतन के शिकार होते रहेंगे। तब आखिर यह काम होगा कैसे? प्रशांत किशोर जी ! जब आप व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ेंगे तो पूंजीवादी राजसत्ता से आपको मुकाबला करना पड़ेगा। इसके लिए जरूरत है वर्ग संघर्ष के आधार पर निचले स्तर से क्रांति के योग्य, राजनीतिक रूप से सचेत जनता की राजनीतिक ताकत पैदा करने की। जिन देशों में क्रांति हुई है, उसका इतिहास भी यही है।
प्रशांत किशोर जी! मैं गांव में पैदा हुआ, गांव में ही जीवन गुजार रहा हूं। कृषि प्रधान हमारे गांव की हालत बहुत ही खराब है। यहां की तीन चौथाई आबादी सर्वहारा, अर्ध सर्वहारा है। खेती-किसानी अलाभकर हो गई है। यहा के लोग रोजी-रोजगार लिए दूसरे राज्यों में पलायन कर चुके हैं। गांव के बच्चों को अच्छी शिक्षा मयस्सर नहीं। सरकारी अस्पताल खुद बीमार हैं। यहां की स्वास्थ्य सुविधा नीम-हकीमों पर निर्भर है। सरकारी योजनाओं में लूट मची है। गांव के लोगों के पास क्रय शक्ति नहीं। बाजारवाद ने इन्हें आकंठ कर्ज में डुबो दिया है। गांव आज छटपटाहट की स्थिति में है।
आपके सामने इस जन शक्ति को एक ऐसे प्रतिरोधात्मक शक्ति के रूप में विकसित करने का सुनहला मौका था। जनता की यह प्रतिरोधातत्मक शक्ति से सर्व ग्रासी पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ा जा सकता था। समानता और भाईचारे के आधार पर एक नई समाज व्यवस्था स्थापित की जा सकती थी। आप चूक गये। गांधी भी चूक गये थे। विनोबा और जेपी भी। आप अपने रास्ते पूंजीवाद को ही ताकत बख्श रहे हैं प्रशांत किशोर जी! बहुत थोड़ा लिखा हूं, ज्यादा समझिएगा।
आपका
एक बिहारी
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)