बाबा विजयेन्द्र
जन सुराज क्या एक गोदी-मूवमेंट है? क्या यह किसी का बेबी-प्रोडक्ट है? किसका ब्रेन-चाइल्ड है यह जन सुराज? किनकी ताकत लगी हैं इसके पीछे? सवाल सुलग रहे हैं. यह मेरा कोई अवसाद नहीं है, न ही कोई निषेधात्मक दृष्टि. संभव है कि मेरी चिंतन की त्रिज्या बड़ी नहीं हो, जिस कारण वृत्त भी बड़ा न दिखे आपको? लेकिन अपने हिस्से की समझ और जो सत्य है उसे साझा करना उचित समझता हूं.
प्रशांत बिहार के व्यवस्था-परिवर्तन के नये पुरोधा बनकर हमारे सामने खड़े हैं. मेरा मानना है कि बिहार की सबसे बड़ी व्यवस्था है जाति-व्यवस्था? बिना जाति-व्यवस्था को बदले, क्या कोई व्यवस्था-परिवर्तन बिहार में संभव है? इस सवाल के साये में प्रशांत छिपे नजर आते हैं. क्यों? क्या इनके लिए विषमता और शोषण के प्रश्न बेमतलब के प्रश्न हैं?
सामाजिक-न्याय के सवाल पर प्रशांत मौन क्यों है? क्या जन सुराज का राजनीतिक बदलाव ही बिहार के सांस्कृतिक-बदलाव का आधार बनेगा? इस प्रशांत-रेखा को समझना जरूरी है. प्रशांत यही साबित करना चाहते हैं कि जिस समूह के पास धन होगा और ऊँची पहुँच होगी, वही अब बिहार में राजनीतिक-हस्तक्षेप कर पायेगा? क्या यह लोकतंत्र के लिए घातक नहीं है? सौ करोड़ भी प्रत्येक जिला में झोंका जाएगा तो मात्र 3800 करोड़ खर्च आएगा. यही राशि छोटी भी हो सकती है. समान्य लोगों का दरबाजा सदा के लिए बंद होगा. यही लोकतंत्र का नया टापू बन रहा है. लोकतंत्र के बनते टापू पर आम लोगों की जगह नहीं बचेगी. क्या यह कारपोरेट का खेल नहीं है जो प्रशांत के बहाने बिहार में खेला जा रहा है?
लोक के बल पर तंत्र जिन्दा होगा या तंत्र के बल पर लोक जिन्दा होगा? क्या यह सच नहीं है लोकतान्त्रिक मूल्य और मानक के लिए यह जन सुराज बिहार के भविष्य के लिए खतरनाक साबित होगा? जनता की लड़ाई है जनता ही लड़ेंगी. और यह जनसंसाधन के बल पर लड़ा जाएगा. किसी कारपोरेट को क्रांति की ठेकेदारी देना ठीक नहीं होगा.
गंभीर आपत्ति है कि ज़ब पूरा देश जहां गांधी को नमन कर रहे हों, वहां उनकी जयंती पर शराब बंदी समाप्त करने के लिए आप लम्बा भाषण पेल रहे हों, यह कैसी श्रद्धांजलि है गाँधी के लिए? क्या गांधी केवल गोली से ही मारे जाते हैं? नहीं, बिल्कुल ही नहीं! इनके विचारों की हत्या भी एक बड़ी हत्या है? क्या प्रशांत, गोडसे का अत्याधुनिक संस्करण बन रहे है?
यह भी एक बड़ा सवाल है. ऐसे अनगिनत सवालों से मेरा मन घिरा हुआ है. किसी भीड़ को देख भेड़ियाधसान नहीं हुआ जा सकता है. किसी का बहुत ही ग्लैमर हमारे सामने हो और चमक-धमक भी हो, बावजूद इनसे प्रभावित नहीं हुआ जा सकता है.
सम्भव है कि बिहार के सभी नेता नकारे और निरर्थक हो गए हों. बावजूद लोकतंत्र का डोर मज़बूत यहीं प्रतीत होता है. लालू और नीतीश की अपनी विसंगति और विद्रुपता हो सकती है. संचिकाओं के संपादन के सफल मुख्यमंत्री भले ये न रहे हों, शिष्टाचार के मामले में भी ये फिसड्डी ही साबित हुए हों,बावजूद लोकतंत्र की सोंधी महक यहीँ है और इन्ही लोगों के पास है. भाजपा से भी आशा की जा सकती है. भाजपा के पीछे भी बाजार का खेल है. बावजूद जनतंत्र की जान यहां भी शेष है. इनसे आशा की जा सकती है,पर जन सुराज से नहीं.
प्रशांत जो कुछ कह और कर रहे हैं, इसे समझना अब आसान ही है. प्रशांत किशोर अन्ना की राह पर नहीं चले और चल भी नहीं सकते थे. अहिंसक आंदोलन के सामने बाजार को जो रेखा खींचनी थी वह पहले से ही खींची जा चुकी है? अन्ना आंदोलन से बाजार को यही सिद्ध करना था कि ज़ब इतना बड़ा आंदोलन विफल हो सकता है तो छोटे-मोटे आंदोलनों की क्या औकात? उस कारण देश की सारी प्रतिरोधी शक्तियां आज हतोत्साहित हुई है? जिनके पास आज लँगोटी खरीदने का पैसा नहीं हो, वह गली-गली टोपी कैसे बाँट पायेगा? अन्ना आंदोलन ने लोकतंत्र के प्रतिरोध की सारी शक्तियां मार दिया है.जंतर -मंतर का सन्नाटा जाके देखा जा सकता है.
जन सुराज की पदयात्रा बाजार की बदली हुई चाल है, एक बदला हुआ चेहरा है. यह बाजार का नया प्रयोग है और बिहार-पॉलिटिक्स का एक नया प्रयोगशाला है.
अरविंद ने गाँधी के स्वराज को टारगेट बनाया और प्रशांत उनके सुराज को. शराब यहां भी है और वहां भी था. एक ने आंदोलन के बाद शराब बेचा,दूसरा आंदोलन के पहले शराब बेच रहे हैं?शराब-बन्दी पर प्रहार गांधी पर एक प्रहार है. इससे कम करके नहीं सोचा जा सकता है.
शराब बन्दी को समाप्त कर देने की घोषणा और कबायद के लिए दो अक्टूबर का ही चयन क्यों?इस पवित्र अवसर पर इस प्रकार के बकवास की कोई जरुरत नहीं थी.यह बाद में भी हो सकता था.यही काम पहले भी हुआ था जब बुद्ध पूर्णिमा पर एटम-बम और बाबा साहेब की पुण्यतिथि 6 दिसंबर को बाबरी ढांचा का ध्वस्त हुआ था? व्यक्ति और उनकी कृति को नष्ट करना हो तो उस तारीख को नयी घटना से जोड़ दो.तिथि का चयन अनायास नहीं बल्कि सोची समझी रणनीति का हिस्सा है. 2 अक्टूबर का चयन भी इसीलिये किया गया. यह कोई साधारण घटना नहीं है.गांधी की प्रतिमा को पीछे रखकर शराब बेचने की बात करना बहुत ही अपमानजनक है.
इस मामले में सभा समाप्ति के बाद महिलाओं की गालियां प्रशांत तक पहुँच चुकी होगी, अगर नहीं पहुंची होगी तो मैं पहुंचा दे रहा हूं. महिला को गाँधी जयंती भले समझ नहीं आयी हो, पर इन्हें प्रशांत द्वारा शराब बेचना समझ में जरूर आया.
महिलाओं की बेहतरी के लिए नीतीश के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है. प्रशांत की बेचैनी असली है या नकली यह तो सभा में शामिल महिलाएं नहीं जानती होगी, पर शराबबंदी की घोषणा को लेकर महिलाओं ने अपनी असहमति जता दी है. आधी आबादी की नापसंदगी कि मुहर अभी ही लग गयी है?
प्रशांत ने जो सवाल खड़ा किया है यह वाजिब सवाल है. सवाल से सहमत हूं पर समाधान के रास्ते सही नहीं हैं. इस वाजिब सवाल के लिए किसी गैर-वाज़िब सहयोग के बल समाधान प्राप्त करे, यह उचित नहीं होगा. बिहार थोड़ा और बर्बाद हो ले, इसे झेला जा सकता है, पर बिहार के लोकतंत्र को दाव पर नहीं लगाया जा सकता है.
वास्तव में बिहार एक लैब ही बन रहा है बाजार के नये प्रयोग का. बिहार को कैसे और किस तरह बेवकूफ बनाया जा सकता है, इसके परीक्षण की कोशिश हो रही है. विकास के बनते टापू से धकियाये हुए लोगों के विद्रोह को दबाने का षड्यंत्र है यह जन सुराज.
पीके बिहार के ‘केजरीवाल एडीशन हैं’ की बात हो रही है. अन्ना आंदोलन की विफलता हुई. आंदोलन के बाद केजरीवाल को सत्ता की प्राप्ति हुई. यह प्राप्ति तो लालू और नीतीश को भी हुई.? लालू और नीतीश भी आंदोलन की ही उपज हैं. केवल आंदोलन को आधार बनाकर प्रशांत को नहीं परखा जा सकता है. बाजार ने ही अरविंद के स्वराज को पैदा किया और बाजार ही प्रशांत के जन सुराज को पैदा कर रहा है.
भीड़ जो केजरीवाल की थी और जो आज प्रशांत की है, इस भीड़ को जानने का मैं दावा करता हूं. बहस के लिए तैयार हूं. जनसंसाधन के बल पर जन-आंदोलन जबतक खड़ा नहीं होगा, तबतक आप कॉस्मेटिक चेंज की ही बात कर सकते हैं. बिहार के जारी इस खेल पर हमारी बात जारी रहेगी. बने रहिये हमारे साथ.