डॉ योगेन्द्र
मैं कल ग्यारह बजे राँची प्रेस क्लब पहुँच गया। यहाँ पर्यावरण सेवियों को थोक में पुरस्कृत किया जाने वाला था। मैं अमूमन ऐसे समारोहों में नहीं जाता। मुझे लगता रहा है कि देश में पुरस्कार लेना और देना भी एक धंधा बन चुका है। लेकिन मैं कल वहाँ पहुँचा। बड़ी वजह यह थी कि इस पुरस्कार समारोह में पुरस्कार लेने और देने वालों में मेरे कई साथी शामिल थे। जिनके साथ कम से कम चालीस वर्षों के गाढ़े संबंध रहे हैं, उनके आने की खबर के बाद मैं ख़ुद को रोक नहीं सका। समारोह में अतिथि आये। इंतजाम ठीक ठाक था। चाय, कॉफी, ठंडा, खाना। सबकुछ दुरुस्त । कार्यक्रम के दो हिस्से थे। पहले हिस्से में पुरस्कार वितरण और दूसरे में विचार गोष्ठी। एयर कंडीशंड कमरे में बैठे-बैठे ठंडक का अहसास हो रहा था। मुझे एयर कंडीशंड कमरे पसंद नहीं है। घर में भी पंखे तक ही मैं सीमित हूँ। सभा में कुर्सी पर लदे हुए मैंने फ़ेसबुक खोला। पता चला कि कोसी बराज पर भी पानी चढ़ गया है। कुछ लोग उस पर भी छपछप कर रहे हैं। आँधी तूफ़ान की तरह हहाती लहरें कितनी भयावह थीं। एक तरफ़ पर्यावरण सेवियों का यहॉं सम्मान हो रहा था और दूसरी तरफ़ नदियाँ अपने रौद्र रूप दिखा रही थीं। इससे इतना तो पता चलता ही था कि पर्यावरण सेवियों की सेवा पर्याप्त नहीं थी। कहिए कि आधी अधूरी रही। ऊँट के मुँह में जीरे के फोरन की तरह।
मैं कल ग्यारह बजे राँची प्रेस क्लब पहुँच गया। यहाँ पर्यावरण सेवियों को थोक में पुरस्कृत किया जाने वाला था। मैं अमूमन ऐसे समारोहों में नहीं जाता। मुझे लगता रहा है कि देश में पुरस्कार लेना और देना भी एक धंधा बन चुका है। लेकिन मैं कल वहाँ पहुँचा। बड़ी वजह यह थी कि इस पुरस्कार समारोह में पुरस्कार लेने और देने वालों में मेरे कई साथी शामिल थे। जिनके साथ कम से कम चालीस वर्षों के गाढ़े संबंध रहे हैं, उनके आने की खबर के बाद मैं ख़ुद को रोक नहीं सका। समारोह में अतिथि आये। इंतजाम ठीक ठाक था। चाय, कॉफी, ठंडा, खाना। सबकुछ दुरुस्त । कार्यक्रम के दो हिस्से थे। पहले हिस्से में पुरस्कार वितरण और दूसरे में विचार गोष्ठी। एयर कंडीशंड कमरे में बैठे-बैठे ठंडक का अहसास हो रहा था। मुझे एयर कंडीशंड कमरे पसंद नहीं है। घर में भी पंखे तक ही मैं सीमित हूँ। सभा में कुर्सी पर लदे हुए मैंने फ़ेसबुक खोला। पता चला कि कोसी बराज पर भी पानी चढ़ गया है। कुछ लोग उस पर भी छपछप कर रहे हैं। आँधी तूफ़ान की तरह हहाती लहरें कितनी भयावह थीं। एक तरफ़ पर्यावरण सेवियों का यहॉं सम्मान हो रहा था और दूसरी तरफ़ नदियाँ अपने रौद्र रूप दिखा रही थीं। इससे इतना तो पता चलता ही था कि पर्यावरण सेवियों की सेवा पर्याप्त नहीं थी। कहिए कि आधी अधूरी रही। ऊँट के मुँह में जीरे के फोरन की तरह।
बाढ़ से लाखों लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं। भक्त और भगवान दोनों बाढ़ में भंस रहे हैं। गाय, बैल ,बकरियों को रखना मुश्किल। बच्चे-बूढ़े सब हलकान। मंदिर भी डूब रहे, मस्जिद भी। बाढ़ किसी की नहीं सुन रही। वह अंधी, बहरी, गूँगी हो गयी है। लोग लाख मनाने की कोशिश करते हैं, वह मान ही नहीं रही है। हर दिन उसका रौद्र रूप डराता है जन मानस को। लाखों लोग सड़क पर हैं। जहॉं तहाँ पड़े हैं। बाढ़ में समाजवाद है। वह किसी को नहीं छोड़ती- न सनातन को, न इस्लाम को, न सिख को, न बौद्ध को। कोरोना में भी सभी ईश्वर ग़ायब रहे और बाढ़ में भी लापता हैं। लेकिन यह मानव प्राणी कभी नहीं समझ सकेगा कि बाढ़ के जन्मदाता भी मनुष्य ही है। मनुष्य ने प्रकृति के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया है तो प्रकृति भी हमलावर हो गयी है। एक सज्जन छत्तीसगढ़ से आये थे। उन्होंने बताया कि सड़क को डबल लेन बनाने के लिए दो लाख पेड़ काटे जायेंगे। मैंने और वहाँ के लोगों ने इसके ख़िलाफ़ पचास हज़ार लोगों के हस्ताक्षर जुटाये। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के पास पहुँचे। उनसे निवेदन किया, मगर उन्होंने सिर तक नहीं हिलायी। यानी सड़क बनने के लिए दो लाख पेड़ काटे ही जायेंगे। सड़क से तीर्थ करने लोग गोमुख की ओर जायेंगे। असल है तीर्थ यात्रा, नक़ल है बाढ़ । बाढ़ एक आपदा है और सड़क निर्माण एक विकास। आपको विकास चाहिए या आपदा। दोनों आपको ही मिलेगा।
देश के अन्य इलाक़े से आये लोगों ने बताया कि कैसे विकास के लिए प्रकृति को हम बर्बाद कर रहे हैं। राँची के मित्र ने कहा कि पहले राँची में गर्मी के दिनों में भी चादर ओढ़नी पड़ती थी। वसंत में राँची शहर आम और लीची के मंजरों से महमह करता था। अब बरसात में भी ए सी चल रही है। मुझे लगता है कि हम सचमुच चिंतित हैं या एक दूसरे को सुना रहे हैं। सुना कर निश्चिंत हो जाते हैं। पर्यावरण को लेकर सब चिंतित हैं तो यह चिंता संगठित क्यों नहीं हो रही? दिल्ली, पटना या राँची में बैठे लोग तो बहरे और अंधे हैं। उन्हें लोकतंत्र में भी राजा का सुख मिल रहा है, वे भला क्यों सोचें? उन्होंने आपदा को अवसर बना लिया है- लूट का अवसर। और पर्यावरण सेवक थोड़ी बहुत सेवा कर आत्मतुष्ट हैं। फ़ेसबुक पर अपना अपना फ़ोटो डाल कर अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं। वे यह नहीं सोच रहे कि इस व्यवस्था में कुछ भी बचाया नहीं जा सकता। न नदी, न जंगल, न ज़मीन।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)