गोबर लपेसने के यज्ञ में बूढ़े

बूढ़े मृत्यु के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं, चाहे मानसिक रूप से या शारीरिक रूप से

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डॉ योगेन्द्र

मुझे सुबह सुबह टहलने की आदत कब से लगी, मुझे ठीक से याद नहीं। इतना भर याद है कि यह आदत उम्र ढलने के बाद नहीं लगी। जब मैं युवा था, तब भी मैदान में होता था। मैं जीवन में कभी ढंग का खिलाड़ी नहीं बना और जिसका खिलाड़ी था, उसे खेल नहीं माना जाता था और अब तो वे खेल लुप्त प्राय है। गाँव के बच्चे बहियार में गाय चराने जाते थे और खेलते थे गोबर के रस रस। अब गोबर से कौन बच्चा खेलता है? अब सबके हाथ में टिपटिपिया है। स्विच दाबो, खेल ही खेल। हॉं, गोबर से देश में नया खेल शुरू हुआ है। कोरोना देश में फैला था तो लोग दहशत में थे। आदमी-आदमी के पास नहीं जाना चाहता था। किसी को छींक हुई कि लोग भयभीत हो जाते थे। लगता था कि कोरोना दस्तक दे रहा है। ऐसे मौसम में बहुत से ज्ञानी जनम ले लेते हैं। ख़ास कर नये नये जो मुल्ला हैं। उन्होंने सुझाया कि गोबर को देह में लपेसने के बाद कोरोना नहीं होगा। गोबर लपेसने का यज्ञ प्रारंभ हुआ। इस महान कार्य में सांसद और मंत्री भी शामिल हुए। लेकिन कोरोना तो जब्बर था। चीन देश से आया था। उसने गोबर रूपी ओज़ोन लेयर को छेद दिया। कुछ साधु संत ने एक और नुक्शा बताया। कहा कि जो गौ मूत्र डायरेक्ट पियेगा, उसे तो कोरोना क़तई नहीं होगा। उन्होंने गौमूत्र-पान कर डेमो दिया, मगर कोरोना ने उन्हें भी नहीं बख्शा ।

मैं जब मैदान में पहुँचता हूँ तो सुबह सुबह दो तरह के लोग बहुतायत से मिलते हैं। एक सेवानिवृत्त बूढ़े और दूसरे जीवन का स्वप्न देखते युवा। सेवानिवृत्त बूढ़े दो तीन काम करते हैं। पहला किसी वृक्ष तले गप मारते हैं या किसी कोने में बैठकर हा हू करते रहते हैं या बेवजह सामूहिक हँसी हँसते हैं। किसी ने कह दिया है कि ज़ोर से हंसें तो स्वस्थ रहेंगे। ये सब बूढ़े मृत्यु के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं, चाहे मानसिक रूप से या शारीरिक रूप से। उन्हें मृत्यु पसंद नहीं है। वे अपने-अपने घरो में मृत्यु का ही इंतज़ार कर रहे हैं। बहुत से बूढ़े ऐसे हैं जिनमें हौसला है। अगर अच्छी व्यवस्था होती तो उससे कोई काम लिया जा सकता था। वे अपने हौसलों को मैदान में क्षरित होते देख रहे हैं। मैं सेवानिवृत्त हूँ, लेकिन मुझे इस बात का अहसास नहीं है। काम करने का हौसला मरा नहीं है। जब युवा था तो मृत्यु डराती थी। अब तो वह भी नहीं डराती। मृत्यु का डर ख़त्म हो गया है। जब नब्बे वर्ष का वायडेन अमेरिका का राष्ट्रपति हो सकता है। पचहत्तर वर्ष का आदमी भारत का प्रधानमंत्री हो सकता है, तो मुझे क्या हुआ है? मैं अपना जीवन खाँसते-खूंसते क्यों गुज़ारूँ?

बूढ़ों में बचपन उतर आता है। जवानी याद आती है। अनुभवों का पिटारा उसके सामने खुला रहता है। इतनी बड़ी संपत्ति उसके पास रहती है, लेकिन समाज उसे त्याग देता है। अब इसका क्या काम? समाज सोचता नहीं है कि वह कितनी बड़ी गलती कर रहा है। कोई बेटा या बहू बूढ़े को वृद्धाश्रम पहुँचा देता है, क्योंकि उसे लगता है कि जीवन जीने में बूढ़े बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। कोई धक्के मार कर सड़क पर फेंक देता है। वह यह नहीं सोचता कि ऐसा कर वह एक ख़ज़ाने पर लात मार रहा है। मुझे लगता है कि बूढ़ों का एक दल होना चाहिए। उपेक्षा और तिरस्कार के शिकार होने से तो अच्छा है कि वे साथ साथ रहें और उन्हें होने का बोध हो। वे समाज को बतायें कि गोबर लपेसने या थाली पिटने से रोग नहीं भागता। एक स्कूल के संचालक ने तो हद कर दी कि एक बच्चे को बलि चढ़ा दी, इसलिए कि इससे स्कूल तरक़्क़ी करेगा। शिक्षा की इस समझ को बदलने के लिए बूढ़े अपने ज्ञान का इस्तेमाल करें। युवा तो फ़िलहाल इस चक्कर में है कि कहीं न कहीं कोई नौकरी मिले, जिससे जीवन चल सके। जो कहता है कि नौकरी देंगे, वे उसी के पीछे पीछे चल पड़ते हैं। वे सोचते कम, पीछे ज़्यादा चलने लगे हैं।

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
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