ब्रह्मानंद ठाकुर
देश में लोकतंत्र है। यह लोकतंत्र दलों का दल-दल है। दल बनाने का सबों का अधिकार है, सो धराधर दल बन रहे हैं। टूट भी रहे हैं। कभी गांव में ग्राम रक्षा दल भी होता था। अब शायद नहीं है। पता नहीं कि ग्राम रक्षा दल से कितने गांवों की रक्षा हुई। अलबत्ता बेलछी, लक्ष्मणपुर बाथे, सेनारी, शंकर बिगहा, बथानी टोला, बारा की घटनाएं घटती रहीं। कमजोरों, दलितों के घर जलाए जाते रहे। समाज में सर्वाइवल आफ दि फिटेस्ट की थ्योरी लागू होती रही। हालांकि योग्यता की उत्तरजीविता का यह सिद्धांत जीवविज्ञान से सम्बंधित है। तो फिर इसे समाज विज्ञान में लागू करने में क्या हर्ज? बहुदलीय लोकतंत्र है। सब चलेगा। चलिए रहा है। अपने सूबे में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाला है। कुछ दल तो इसके लिए अपनी कमर कस चुके हैं। कुछ कसने वाले हैं। चुनावी मौसम ऐसा ही होता है। समां काफी पहले से बंध जाता है। सन् 70 के दशक में अपने गांव में मैंने एक कवि सम्मेलन आयोजित किया था। तब उस मंच से एक युवा कवि शिवदेव शर्मा पथिक ने सुनाया था —-
‘ज्योंही चुनाव आता त्यों ही —-
कुछ पार्टी दफ्तर खुलते हैं,
कुछ पोस्टर साटे जाते हैं,
कुछ झंडे नये निकलते हैं,
कुछ डंडे नये निकलते हैं,
कुछ पंडे नये निकलते हैं,
कुछ लोग खरीदे जाते हैं,
वादों पर वादे होते हैं।’
यह आधी सदी पहले का दृश्य था।आज भी दर्शाया जा रहा है। आदि में आर्द्रा और अंत में हस्त (हथिया नक्षत्र) बरसे या न बरसे, दलों के वादों की बरसात झमाझम होने लगी है। दूसरे प्रदेशों में मिहनत-मजदूरी करने वाले बिहार के प्रवासी युवाओं! खूब ध्यान से सुन लो। अगले साल जब छठ में गांव लौटोगे तो फिर मजदूरी के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा। बिहार में ही तुमको रोजी-रोजगार मिल जाएगा। कितना बढ़िया वादा ! पूंजीवादी अर्थनीति के चरित्र से नावाकिफ रहने वाले इसे नहीं समझ पाएंगे। अर्थनीति व्यवस्था बदलने से बदलेगी। व्यवस्था क्रांति से बदलती है। चुनाव से नहीं। हमारे गोनू भाई को ऐसे ही माहौल में दूसरों की देखा देखी पार्टी-पार्टी खेलने का मन हुआ है। इस खेल में खोने के लिए कुछ नहीं, पाने के लिए सारा आकाश होता है। यही उनका तर्क है। पार्टी बनाना पहले से अब बहुत आसान हो गया है। पहले बड़ा कठिन था। ग्रामीण स्तर पर चवन्नियां मेम्बर बनाने से पार्टी गठन का काम प्रारम्भ होता। फिर पंचायत, प्रखंड, जिला, प्रदेश और देश के स्तर पर इन मेम्बरों द्वारा चुनाव के जरिए पार्टी के पदाधिकारी चुने जाते। तब निचले स्तर के पार्टी कार्यकर्ताओं की भी बड़ी अहमियत होती थी। वे अपने दल के नींव की ईंट होते थे। नींव की ईंट की उपेक्षा कर आलीशान और टिकाऊ महल खड़ा करना सम्भव है क्या ?आज के दलों ने इसे ही सम्भव कर दिखाया है। इलेक्टेड नहीं, नोमिनेटेड।
लोकतंत्र का राग अलापने वाले दलों में ही लोकतांत्रिक कंसेप्ट गायब। गोनू भाई सोच लिए हैं, वे भी एक दल बनाएंगे। दल बनाने का धंधा बड़ा पुण्य का काम है। इसमें शुभ लाभ भी है। मैंने उनसे पूछा, दल बनाइए। सभी बना रहे हैं। लेकिन एक बात बताइए, कार्यकर्ता कहां से लाइएगा? दलों का दलदल इतना विस्तृत है कि सब के सब पहले से ही विभिन्न दलों में बुक्ड हैं या मेरी तरह रिजेक्टेड हो चुके हैं। बुक्ड कार्यकर्ता तो आपके नये दल में आने से रहे। रिजेक्टेड के सहारे यदि दल बनाइएगा तो आपका भी हाल मनसुखबा वाला होगा। दल का पहला स्थापना बर्ष भी मनसुखबा कहां मना पाया था? गोनू भाई मेरी बात सुन माथा खुजलाने लगे लेकिन वे अब भी पार्टी-पार्टी खेलने के अपने मंसूबे पर डटे हुए हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)