जन सुराज का यह पुनमिया कुशाल यानी पीके

प्रशांत किशोर इस डांस ऑफ़ डेमोक्रेसी में पहले मेकअप आर्टिस्ट का ही रोल निभा रहे थे

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बाबा विजयेन्द्र

फिल्म पीके में आमिर खान एक एलियन है। इस एलियन के पास भावुकता नहीं, बल्कि एक गहरी तार्किकता है। पीके यानी आमिर खान इस नए लोक की जमीन पर पांव रखता है। भगवान को समझने पीके मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा हर जगह भटकता है। फिल्म में उसके रिमोट की चोरी हो जाती है और फिर वह खोया हुआ रिमोट दिल्ली में मिल जाता है। यह पीके अपना रिमोट लेकर अपने ग्रह वापस आता है। फिर कुछ दिन बाद पृथ्वी पर वापस आ जाता है। इस फिल्म में अभिव्यंजना है,पाखंड पर प्रहार है। निश्चित रूप से पीके फिल्म धार्मिक जगत के खिलाफ एक जिहाद है। यह पीके यानी पुनमिया कुशाल?
यहाँ पीके यानी पुनमिया कुशाल की नहीं, बल्कि मैं प्रशांत किशोर की बात कर रहा हूँ। बिहार के सियासी लोक में इनका अवतरण हुआ है। आमिर खान की तरह यह प्रशांत किशोर भी पिछले दो साल से बिहार में भटक रहे हैं यह जानने कि यहां लोकतंत्र के मंदिर में क्या कुछ हो रहा है? प्रशांत एक एलियन की तरह ही बिहार में भटक रहे हैं। बिहार में कुछ करना और सफल हो जाना यह बहुत बड़ी बात है। बीमारी के जितने प्रकार हैं सब यहाँ मौजूद हैं। बिहार को बदलने का सपना देखना, एक एलियन का ही काम हो सकता है? पहले से बैठे यहाँ के कुन्डलीमार नेता इस मुगालते में थे कि पीके को बिहार खदेड़ देगा? यहां पीके पॉलिटिक्स की कोई जगह नहीं है। बिहार में यह सब नहीं चलेगा जो प्रशांत किशोर करना चाहते हैं।सत्ता के मठाधीशों द्वारा प्रशांत का विरोध न कर इन्हें हलके में लेने की कोशिश हुई। सच है कि प्रशांत किशोर इस डांस ऑफ़ डेमोक्रेसी में पहले एक मेकअप आर्टिस्ट का ही रोल निभा रहे थे। किसी को क्या पता था कि यह लड़का एक दिन ग्रीनरूम से निकलकर सीधे स्टेज पर आ जाएगा और कहेगा कि असली हीरो मैं हूँ और जिन्हें मैंने डेंट पेंट किया था वह सब नकली है।
प्रशांत आदर्श और मर्यादा के किसी दबाव में नहीं हैं। गड्ढे में पड़े हुए बिहार को बाहर निकालना और यहाँ बहार लाना ही इनकी प्राथमिकता है। कीचड़ साफ़ करने के लिए कीचड़ में उतरना यह इनकी शिफ्टिंग है, कोई डिरेलमेन्ट नहीं। प्रशांत इस शिफ्टिंग को सैद्धांतिक स्खलन के रूप में नहीं देखते हैं। इन्हें किसी की नकल में विश्वास नहीं है। खेल केवल इनकी अक़ल का है। बिहार के अक्लमंद युवाओं के सामने पीके सवाल खड़ा कर रहे हैं कि आजादी के पचहत्तर साल बाद केवल पचहत्तर लाख ही नौकरी क्यों दी गयी? नौकरी पचहत्तर लाख ही क्यों ? न कोई अवसर, न ही कोई प्रयास ! आखिर कौन है गुनहगार इस त्रासदी का? सौ में केवल दो लोगों को सरकारी नौकरी?

दिल्ली का आनंद विहार रेलवे स्टेशन जहाँ बिहार की गाड़ियां आकर रुकती हैं का नजारा देखा जा सकता है कि किस तरह बिहार से लोगों का पलायन हो रहा है? सर पर पोटरी-चोटरी लिए एक बदहवास बिहार को यहाँ भी देखा जा सकता है। सौ बीमारी और एक बिहारी का जुमला हम सबके जेहन में कौंधता है। बिहार कभी अपनी इस अधोगति के खिलाफ विद्रोही मुद्रा में नहीं आया। पता नहीं बिहार के किस कोने में विद्रोही चेतना सुस्ता रही है?

बिहार में गहरी निराशा है। आशा की कोई किरण नजर नहीं आती। इस स्थिति में कहीं भी कोई सुगबुगाहट होती है तो आशा जग जाती है। प्रशांत बिहार का तीसरी शक्ति बनने जा रहे हैं। राजग और इंडिया ब्लॉक के बाद यह तीसरा ब्लॉक? प्रशांत किंग होंगे या किंगमेकर यह तो वक्त बताएगा। फिलहाल लालू और नीतीश पर प्रहार जारी है। हर मोर्चे पर इन्हें विफल साबित कर रहे हैं। भाजपा का विरोध नहीं के बराबर है बावजूद भाजपा के पास जो कुछ शेष है बिहार में वह भी खिसकता नजर आ रहा है। यह पीके सबको नोचने की स्थिति में है। भाजपा का जो सवर्ण जनाधार है वह खिसककर जन सुराज की तरफ आ रहा है। बिहार के सवर्ण मतदाता जिनके पास बुद्धि और व्यवस्था है, इनके हूआ-हूआ करने का बड़ा असर होता है। इस हूआ-हूआ के कारण फ्लोटिंग वोटर प्रभावित होता है। लगभग हर वर्ग के लोगों से पीके की बात और मुलाकात हो रही है। एंटी इंकम्बेंसी का पूरा असर नजर आता है। इसकी जद में वर्तमान सरकार ही नहीं, बल्कि नीतीश नीत पिछली सरकार भी है।

गांधी-जयन्ती दो अक्टूबर को पीके की पार्टी की घोषणा हो जाएगी। अब विरोधियों का इनपर आक्रमण तेज होगा। देखा जाय तो आक्रमण शुरू हो गया है। पीके भ्रष्टाचार का विरोध कैसे करेंगे? आखिर जो पैसा झोंका जा रहा है वह किनका पैसा है और कहाँ से आ रहा है? उनका वर्गीय हित क्या है ? इस इन्वेस्टमेंट के क्या मायने हैं? जन सुराज अन्य से अलग कैसे ? अगर अन्य से अलग नहीं है तो फिर पीके ही क्यों ? सुराज पार्टी कभी गठित की जा सकती थी, फिर गांधी जयंती ही क्यों ? क्या गांधी की नैतिकता, पारदर्शिता और शुचिता की रक्षा होगी ? ऐसे बहुतेरे सवाल प्रशांत का पीछा करेंगे। जवाब तो देना ही पड़ेगा ।जो भी हो प्रशांत वे सारे तूर-कलाम करेंगे जिसकी जरूरत होगी।

यह चौहान अब चुकने वाला नहीं है। सारे दलों के पास युवा चेहरा हैं। केवल राजग ही घिसट रहा है। घूम फिर कर वही नीतीशे कुमार ! भाजपा की अकर्मण्यता के कारण कभी कोई नेता मास को रिप्रेजेंट करता नजर नहीं आया। थोड़ा सुशील मोदी का कद था पर वह भी दिवंगत हो चुके हैं। भाजपा का वर्तमान मौन इनके लिए मारक साबित होगा। बहुत स्पेस मिला था बिहार में भाजपा को बिना बैसाखी खड़ा होने का। दूसरे कंधे पर बन्दूक की जरुरत ही नहीं थी। भाजपा का कन्धा भी अपना था, बन्दूक भी अपनी थी, पर कुछ नहीं हुआ। अब प्रशांत इनके लिए भस्मासुर बनेगा। लोहियावादी लोग एक जगह खड़े नहीं हुए तो इनके लिए भी अस्तित्व का प्रश्न खड़ा होगा। छोटे-छोटे बाहुबलियों के लिए भी खतरा बन सकता है जन सुराज। दो अक्टूबर को देखना है कि बिहार में गांधी की आँखों पर चश्मा है या नहीं? चंपारण के गांधी पर हमारी नजर होगी। शायद सुराज में कोई स्पार्क दिख जाय!

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