डॉ योगेन्द्र
बिहार के लखीसराय ज़िले में हलसी थाना है। वहाँ का रहनेवाला है मिथिलेश। उसको आईपीएस बनने का शौक़ चर्राया । गाँव घर में ऐसे लोग सहज ही उपलब्ध रहते हैं जो कुछ भी बना सकते हैं। उसकी मुलाक़ात जमुई ज़िले के खैरा गाँव के मनोज सिंह से हुई। मनोज सिंह ने कहा कि वह और कुछ बनाये या नहीं बनाये, आईपीएस तो बना ही देगा। शायद दोनों को लैट्ररल इंट्री का पता नहीं था, वरना वहीं दिमाग़ लगाता। मिथिलेश दसवीं पास था। उसके सपने में चार चाँद लग गये। मनोज ने शर्त रखी कि दो लाख दो, आईपीएस बनो। मिथिलेश दिमाग़ लगाने लगा कि कैसे दो लाख रूपये मिले, जो आईपीएस बने। वह अपने मामा के पास पहुँचा। बीमार मुँह बनाकर मामा से कहा कि माँ बहुत बीमार है, मुझे दो लाख रूपये चाहिए। मामा कंस टाइप का नहीं रहा होगा, उसने दो लाख अपने भांजे को सुपुर्द किया। भाँजा मनोज सिंह को दो लाख रूपये दिये। मनोज सिंह ने मिथिलेश के शरीर को नापा और आईपीएस का ड्रेस और नक़ली पिस्तौल थमायी और कहा कि जाओ, हलसी थाने में अपनी ड्यूटी करो। वह शान से चला हलसी थाना, लेकिन रास्ते में गिरफ़्तार हो गया।
यह कहानी मीडिया पर उपलब्ध है। प्रिंट पर भी और इलेक्ट्रॉनिक पर भी। मिथिलेश दसवीं पास है। यानी दसवीं पास लड़के को मालूम नहीं है कि आईपीएस कैसे बनता है? खैरा गाँव के मनोज सिंह जब यह सब कर रहा होगा, तो क्या पता नहीं होगा कि एक दिन भंडा फूटेगा और वह पकड़ा जायेगा? मामा कैसा था कि उसने पता तक नहीं किया कि भांजा झूठ बोल रहा है या सच? उसकी बहन का घर श्रीलंका में तो नहीं था। समाज का यह कौन सा रूप है, जहॉं शिक्षा और समाज दोनों घेरे में है। हम इस पर हस सकते हैं और भूल जा सकते हैं, लेकिन यह सिलसिला रूकने वाला नहीं है। इसी तरह जयपुर में एक घटना घटी। सुनील नामक एक शख़्स फ़र्ज़ी आईपीएस बन गया। उसके बूते उसने अच्छे घर में सगाई भी कर ली। साले के साथ घूमने निकला और एक गेस्ट हाउस में रूका। पुलिस को उसने उल्टी हथेली से सेल्यूट किया। पुलिस समझ गयी कि दाल में कुछ काला है और वह पकड़ा गया।
जिस तंत्र में जी रहे हैं, उसमें चंद पदों से पैसा और शोहरत जुड़ गया है। सम्मान के साथ जीने के संसाधनों में भारी कमी है। सामान लोगों में भी अदम्य लालसा और पिपासा जागृत हो गई है। वह देख रहा है कि लोकतंत्र में तो सबकुछ गोलमाल है। नीचे के सरकारी दफ़्तरों में गोलमाल है, तो ऊपर नेताओं के भाषणों और उसके कार्यकलापों में। तंत्र पर फ़र्ज़ी लोग क़ाबिज़ हैं। घूस ले और देकर लोग समाज में सम्मानित हो रहे हैं। भ्रष्ट होने और भ्रष्ट करने में कोई नैतिक रूकावट नहीं है। मुझे याद आ रहा है कि जमालपुर रेल कारख़ाने से अप्रेंटिस के लिए रिक्तियाँ आतीं थीं। जैसे ही रिक्तियाँ आतीं कि दलाल बाज़ार में आ जाते। वे कहते कि इतना दो तो नौकरी मिल जायेगी । लोग खेत पथार बेच कर पैसे जुगाड़ करते। दलाल को पहुँचा देते। दलाल पैसे लेकर बैठा रहता। जब रिज़ल्ट आता तो जिसका हो गया, उसका पैसा रख लेता और जिसका नहीं हुआ, उससे क्षमा याचना कर पैसे दो चार पाँच महीने में लौटा देता। दलाल करता कुछ नहीं। न हर्रे लगता, न फिटकिरी। रंग चोखा रहता। लोकतंत्र में दलाल युग का प्राबल्य है। फ़र्ज़ी बनना और बनाना उसकी नियति है ।