आज निगाहें कितनी खोटी हो गईं !

इसी व्यक्तिगत स्वार्थ साधने की अंधी दौड़ में मानवता को पैरों तले रौंदते-कुचलते, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की प्रतिस्पर्धा जारी है

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ब्रह्मानन्द ठाकुर 
सवाल व्यापक जन सरोकार से जुड़ा हुआ है एवं वस्तुओं, घटनाओं और परिवेश को देखने-समझने के नजरिए से भी। आज हर कोई एक दूसरे की नजर में खोटा है। उस खोटे सिक्के की तरह जो किसी काम का नहीं। सिर्फ बोझ है। किसी की उम्मीद पर, भावनाओं पर दूसरे का खड़ा नहीं उतरना ही तो खोटापन है। बाप की नजर में बेटा, बेटे की नजर में बाप, नियोक्ता की नजर में श्रमिक तो श्रमिक की नजर में नियोक्ता, नेता की नजर में पब्लिक और पब्लिक की नजर में नेता खोटा हो गया है। यहां तक कि पति-पत्नी और गुरु-शिष्य की नजर में भी खोटापन है। अब देखिए न, बाप अपने बेटे से हरि कीर्तन करने को कहता है और बेटा संन्यासी  फिल्म का ‘चल संन्यासी मंदिर में, तेरा चिमटा, मेरी चूड़ियां साथ-साथ झनकाएंगे’ गीत गुनगुनाने लगता है। मंदिर के नाम पर मदिरालय जाने की होड़ मची हुई है। वो तो कृपा है हमारे सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश बाबू की जिन्होंने शराब पर पाबंदी लगा रखी है। लोग कहते हैं, होम डिलिवरी चालू है। मैंने तो वर्षों पहले दो पीढ़ियों को एक साथ एक टेबुल पर एक ही प्लेट में रखा चखना चखते और जाम छलकाते देखा है। कितनी समानता और आदर भाव था?  ऐसा करते हुए तब कोई एक-दूसरे की नजर में खोटा नहीं था। मित्र गण कहा करते, वाह! क्या स्वर्णिम काल है ! शायद कुछ इन्हीं परिस्थितियों के लिए कवि हरिवंश राय बच्चन ने कहा होगा —‘ बैर कराते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला।’ वैसे इस कविता को जीवन के व्यापक संदर्भों में भी पढ़ा और समझा जाना चाहिए। बस, नजरिया चाहिए। खोटी और सीमित नहीं, खरा ओर व्यापक नजरिया। नजरिया भी वस्तु सापेक्ष होती है। चिंतन भी। लेकिन, होत न सब दिन एक समाना। समय के साथ मूल्य, मान्यताएं, आचार-व्यवहार, विचार वस्तुगत परिस्थितियां सब बदलती हैं। जब परिस्थितियां बदलीं तो निगाहें भी बदल गईं। बाप बेटे से स्कूल जाने को कहता है। बेटा घर से स्कूल बैग पीठ पर लादे स्कूल के बदले कहीं और मस्ती कर रहा होता है। कुछ कहिए तो शिक्षक और बाप दोनों उसकी नजर में खोटा।
पति काम की तलाश में प्रदेश चला है। पत्नी कह रही है, ‘लेले अइहा हो पिया झुमका बंगाल से।’ साल भर बाद पति घर लौट रहा है। एडवांस की कौन कहे, उसे उसका बकाया मजदूरी भी नहीं मिला है। अपने एक मित्र से उधार लेकर ट्रेन का टिकट कटा वह घर लौट रहा है। पत्नी के लिए बंगाल का झुमका न खरीद पाने का उसके मन में कचोट है। खाली हाथ वह घर पहुंचता है। पति को खाली हाथ घर आया देख पत्नी उसे खोटा पति साबित कर देती है। इसलिए कि वह उसकी उम्मीद पर खरा नहीं उतर सका। अधिकारी और नेता भी पब्लिक की उम्मीद पर खरे कहां उतर रहे हैं? किसी अधिकारी के पास अपने वाजिब काम के लिए जाइए तो वह उसमें हीला-हवाली करने लगता है। आप अपने सांसद, विधायक से सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य की समस्याओं के समाधान की मांग करिए तो वह इसके लिए विरोधी दल वालों को जिम्मेवार बता अपना पल्ला झाड़ लेता है। इन समस्याओं के लिए यदि आप उसकी आंख में ऊंगली डाल उसी को जवाबदेह ठहराते हैं तो हो गये आप उसकी नजर में खोटा! ‘हम सुनरी, पिया सुनरा, गामक लोग बनरी-बनरा वाली स्थिति। खरा और खोटा जांचने की एकमात्र कसौटी आज व्यक्तिगत स्वार्थ है। इसी व्यक्तिगत स्वार्थ साधने की अंधी दौड़ में मानवता को पैरों तले रौंदते-कुचलते, एक-दूसरे से आगे निकल जाने की प्रतिस्पर्धा जारी है। निगाहों का यह खोटापन नैतिक और सांस्कृतिक पतन की देन है। और, सांस्कृतिक पतन मरनोन्मुख पूंजीवाद के लिए कोरामिन। पूंजीवाद के खात्में से ही नूतन मानवीय मूल्यबोध और उच्च सांस्कृतिक चेतना सम्पन्न समाज व्यवस्था का निर्माण हो सकता है। जब ऐसा हो जाएगा, तब न निगाहें खोटी होंगी, न खोटा सिक्का समाज में तिरस्कृत होगा।
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