बाबा विजयेन्द्र
एनकाउंटर ! एनकाउंटर !! एनकाउंटर !!! चारो तरफ गोलियों की आवाज सुनाई दे रही है। हर तरफ हिंसा और अराजकता का आलम है। बोली और गोली अब एक जैसी ही दिखती है। आम समझ थी कि जो बात गोली से नहीं बनती है, वह बोली से बन जाती है। अब बोलियों में इतनी कड़वाहट और घृणा है कि इसकी अंतिम परिणति गोलियों ही होती हैं। हर हालत में हिंसा करना और हिंसा को सहना हमारी नियति बनती जा रही है। निर्दोष लोग मारे जा रहे हैं और मारने वाले भी मारे जा रहे हैं? कोर्ट कचहरी का काम कम हो गया है। पुलिस या तो निकम्मी है, या फिर न्यायाधीश है? पुलिस या तो निष्क्रिय रहेंगी या फिर हिंसा करेगी । दोनों स्तर पर पुलिस बदनाम है। पुलिस का मानवीय चेहरा अब तक सामने नहीं आया है। क़ानून के हाथ लम्बे होते हैं। पर क़ानून के लम्बे हाथ की परवाह करने का समय इसके पास नहीं होता? पुलिस के हथियार अब कंधे पर नहीं दिखते हैं। हथियार का कंधे से हाथ में आना और किसी के ऊपर हथियार तान देना,खौफ पैदा करने के लिए पर्याप्त होता था। गांव में कोई अदना सिपाही भी खौफ पैदा करने में सक्षम था। बीते दिनों लाल टोपी वाली पुलिस ही तोप हुआ करती थी। अंग्रेज के ज़माने की इस कहानी को हम जानते हैं कि लाल टोपी को देखते ही गांव का गांव खाली हो जाता था?
अपराध का चरित्र बदलता गया और पुलिस का भी चेहरा बदलता गया। आज जितने तरह के अपराध हैं उतनी ही तरह की हमारी पुलिस? पूरी व्यवस्था कहीं न कहीं भयभीत है। सुरक्षा के चाक-चौबंद दुर्ग में जीना इनकी मजबूरी है । बाहर खतरा बड़ा है। न जाने कितने प्रकार की पुलिस है राज्य व्यवस्था के पास? लूटकर धन जमा करना और शोहरत सृजित करना भी अपराध ही है। कितने प्रकार के अपराध और कितने प्रकार की पुलिस? आम लोगों का इन सूचनाओं से कोई सरोकार नहीं होता।