डॉ योगेन्द्र
दौड़ती भागती ट्रेन की खिड़कियों से बाहर के दृश्य आकर्षक लगते हैं। सरकते पेड़-पौधे, रेल की पटरियां, गांव-घर, लोग, धान की हरीतिमा। कहीं कहीं पहाड़ और वे पहाड़ बरसात में जंगल बनने को आतुर रहते हैं। उसकी वीरानी में जहां तहां पौधे उग आते हैं। दृश्य बदलता रहता है। ट्रेन सरकती रहती है और फिर बारिश की बूँदें आकाश से झरती है और जंगलों को आनंदित करती हैं। पहाड़ों और जंगलों को देख कर कालिदास का यक्ष याद आता है। रामगिरि पर्वत पर बैठा हुआ सदियों से अपनी प्रिया को पुकार रहा है। दुष्ट कुबेर की प्रताड़ना से पता नहीं कब मुक्ति मिलेगी और इंटरनेट के जमाने में भी वह कब तक मेघ से संदेशा भेजता रहेगा! लेकिन यक्ष की आतुर प्रतीक्षा का हल तो मेघ ही करेगा। इंटरनेट अभी तक अलकापुरी नहीं पहुँचा है। इंटरनेट अलकापुरी पहुँच भी जाये तो प्रेम से भरी चिट्ठी को यक्ष इंटरनेट से कैसे पहुँचायेगा? भावनाओं से भरी चिट्ठी को इंटरनेट और व्हाट्सअप पर जगह कहां है! यह तो इंस्टेंट युग है। सब कुछ झटपट। नूडल्स कड़ाही में डालो, तुरंत तैयार। हर आदमी रफ़्तार में है। भागता जा रहा है।
1986 में मैं पहली बार हावड़ा स्टेशन पर पहुँचा। मैंने देखा कि ज़्यादातर यात्री उतरते ही दौड़ने लगे। मैं प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा होकर देखने लगा कि लोग कहाँ भाग रहे हैं? मेरी नज़रें उनका पीछा करने लगीं। पता चला कि वे या तो बस के लिए दौड़ रहे हैं या फिर फेरी घाट पर खड़े जहाज़ के लिए। सभी का गंतव्य तय था और उनकी दौड़ वहाँ तक जाकर खत्म होती थी। मुझे धर्मतल्ला जाना था। कोई हड़बड़ी नहीं थी, लेकिन हावड़ा स्टेशन के विस्तार को देख कर भौंचक था। उस पर बड़े-बड़े पंखे। वे पंखे आज भी हैं। जो भी हो। यक्ष जैसा प्रेमी हड़बड़ी में पैदा नहीं होता। सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता है। कोई युवक किसी लड़की के साथ दीख जाये, तो तुरंत लोग उसे मजनूँ करार कर देते हैं। मजनूँ होना क्या इतना आसान होता है? “शीरी फरहाद” बनना खुद को खोना है या कहिए कि सचमुच का पाना है। प्रेम पाने का नाम ही ज़िंदगी है। जो भी हो, इंटरनेट आये या व्हाट्सअप प्रेम के प्रवाह को रोकेगा कौन? एक दूसरे के लिए खो देने की ख्वाहिश सामान्य ख्वाहिश नहीं होती ।
ऐसी ही ख्वाहिश जब रंग लाती है तो कोई भगत सिंह पैदा होता है, तो कोई अश्फ़ाकउल्ला। फाँसी पर चढे तो हंसते हुए। वे जानते हैं कि वे क्यों फाँसी पर चढ़ रहे हैं। देश के लिए, समाज के लिए, विश्व के लिए। धन्य हैं उनके माँ पिता, भाई बंधु जो निष्कंप उनके पीठ पर खड़े रहे। प्रेम का यह धरातल कम अनुभव नहीं है। यहॉं भी खुद को खोकर पाना है। गाँधी ही क्या था? सामान्य सा जीवन शुरू हुआ। पढ़ाई में भी अव्वल नहीं रहे। उनकी बुरी आदतें भी थीं। इंग्लैंड से वकील बन कर आये तो बंबई कोर्ट में जज के सामने खड़े नहीं हो पाये। पाँव थरथराये। वही गाँधी समाज के अंतिम व्यक्ति के सर्वोच्च पैरोकार बने। यक्ष का ही प्रेम गाँधी के ह्रदय में था और शायद और भी परिष्कृत। यक्ष भी कुबेर के तिरस्कार के शिकार हुए और गाँधी भी। दोनों में प्रेम धारा ऐसी फूटी कि मिटाये न मिटायी जा सकेगी।
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