परस्परावलंबित गांव ही कर पाएंगे वैश्वीकरण की चुनौतियों का सामना

भारत की आत्मा गांवों में बसती है

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ब्रह्मानंद ठाकुर
कहा जाता है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। बात सही भी है। भारत गांवों का देश है। यहां के रीति-रिवाज, परम्परा, उन्नत संस्कृति और आपसी भाईचारे की भावना गांव की पहचान रही है। वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में गांव की वह पहचान मिटने लगी है। आपसी रिश्तों में दरारें पड़ चुकी हैं। परिवार बिखरने लगे हैं। भाईचारे का लोप हो गया है। ग्रामीण संस्कृति में ये विकृतियां पिछले तीन दशकों से बड़ी तेजी से पनपी हैं। मुझे याद है, मेरे घर के पीछे 5-7 घर दलितों के हैं। जब मैं तीन साल का था, मेरी मां गुजर गई। उससे एक सप्ताह पहले मेरे पिता की मौत हुई थी। मैं अपने घर का इकलौता था। दादी ने मुझे मां का प्यार दिया और चाचा ने पिता का फर्ज मरते दम तक निभाया। मां की मौत के बाद दादी मुझे गोद में उठाए उसी महादलित टोले की एक महिला रजिया के पास अक्सर ले जाया करती थी। रजिया गांव की बेटी थी। जाति की दुसाधिन। वह मुझे अपनी गोद में लेकर दुलराने लगती थी। दादी ने मुझे रजिया को रजिया फुआ कहकर बुलाना सिखाया। मेरी अपनी कोई  फुआ नहीं थी। रजिया ने इस अभाव को पूरा किया। उसके मरे 50 साल से ज्यादा हो गये हैं लेकिन रजिया फुआ मुझे अब भी याद है। बेनीपुरी जी ने अपनी कहानी माटी की मूरतें में सरयु भैया, रूपा की आजी, सुभान खां, मंगल हरवाहा , परमेसर  , बुधिया, बालगोविन भगत, भौजी, रजिया जैसे पात्रों के माध्यम से जिस ग्रामीण परम्परा और संस्कृति का चित्र उकेरा है, वे आज दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं देते। तब गांव  विभिन्न जाति और धर्म के लोगों को मिल जुल कर रहने और एक-दूसरे की मदद करने के लिए जाना जाता था। पारस्परिक सहयोग की भावना तो तब मूर्त रूप लेती दिखाई देती जब किसी घर में शादी-विवाह, या सुख-श्राद्ध होता। सभी जाति और धर्म के लोग उसे अपना आयोजन समझ कर पूरे मन से उसको सफल बनाने में जुट जाते। महिलाएं भी इसमें आगे रहती थीं।कोई अचार डाल रही है, तो कोई अदौरी-तिलौरी बना रही है। कहीं दही बिलो कर घी के लिए मक्खन निकाला जा रहा होता तो कहीं ओखल में चावल छांटने की धमक सुनाई देती। कोई चिउरा कूटने में लगी होती। शादी का जब मंडप बनाना होता , गांव के लोग ही बांस काटते, चीरते-फाड़ते, फिर मरवा छाने के बाद उसे आंगन में यथा स्थान खड़ा भी करते। लगता था ,पूरा गांव मानो एक परिवार हो। एक -दूसरे के लिए समर्पित। अब तो ऐसे काम मजदूरों से मजदूरी देकर कराए जाने लगे हैं। मेरे गांव में शादी-विवाह, उपनयन संस्कार जैसे अवसरों पर उपयोग में लाए जाने वाला अधिकांश सामान जैसे शामियाना, टोकना, दरी, जाजिम, मसनद, इत्रदान, गुलापास, अचकन-पाजामा, ढोलक-झाल, तबला हारमोनियम सब  कुछ उपलब्ध था। शर्त यह रहती थी कि एक दिन में दो से अधिक परिवार में आयोजन न किया जाए। क्योंकि उपरोक्त सामान एक साथ दो आयोजनों में ही उपलब्ध हो सकता था। शादी करने जाने वाला दुल्हा यही मांगे का अचकन-पाजामा पहन विवाह करने जाता था। मैं भी गया हूं। अब तो शूट और शेरवानी का जमाना है। हजारों का बजट। टेंट, सजावट और भोजन आदि में लाखों खर्च। भोज बनाने  और परोसने का काम भी गांव वाले मिल-जुल कर करते थे। न टेंट हाउस न केटरिंग। सब कुछ पारस्परिक सहयोग से सम्पन्न होता था। भोज-भात के लिए दही भी महिलाएं मिल-जुल कर घर में ही जमाती थी। अब थोड़ी दूध की चर्चा। तब गांव में हर किसी के दरवाजे पर भैंस हुआ करती थी। गाय तो बस इक्के-दुक्के। वह भी एक-दो सेर दूध देने वाली। जिन किसानों की भैंस दूध दे रही होती, उनके यहां से दूध एकत्र किया जाता। यह काम टोला मुहल्ला के लड़के बड़े उत्साह से करते थे। कुछ लोग तो अपने घर से दूध खुद पहुंचा दिया करते।दूध का दाम तत्काल नहीं देना पड़ता था। कुछ लोग जरूरत पड़ने पर दूध के बदले दूध ही लेते थे ।भले ही वह जरूरत साल, दो साल बाद क्यों न पड़े। आज तो बाजार में विभिन्न ब्रांड का दही उपलब्ध है। पहले पैसा जमा करिए तब दही मिलेगा। वैश्वीकरण ने गांव की इस व्यवस्था को छिन्न -भिन्न कर दिया।हर छोटी से छोटी जरूरत के लिए हम बाजार पर आश्रित होते चले गये। हमारी पारस्परिक एकता खंडित हो  गई। आपसी सहयोग की भावना खत्म हो गई । बदलते समय में  समाज  में इसकी जगह  एक नई संस्कृति (विकृति )पैदा हुई। हमने अपने समरस समाज के प्रमुख अंगों को उसके वास स्थान के नाम पर चमार टोली, दुसाध टोली , मुसहरी टोली , बाभन टोली ,पठानटोली, यादवटोली आदि जातिगत नाम दे दिया।ऐसा करते हुए समाज पर पड़ने वाले इसके मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव पर तनिक भी विचार नहीं किया। इससे हमारे पारस्परिक सद्भाव की भावना को काफी चोट पहुंची है। आज  वैश्वीकरण और बाजारवाद ने  हमें अपने क्रूर पंजों में जकड़ लिया है।  गांव को  अपनी बची-खुची पहचान  बनाए रखने के सामने वैश्वीकरण एक बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का सामना गांव परस्परावलंबित होकर , एक -दूसरे को दिल से सम्मान देकर  ही सफलता  पूर्वक कर सकते हैं। इतिहास की हर चीज गर्हित नहीं होती। उसकी सही समझ ही समाज को नई राह दिखाती है। यह सब लिखते हुए मुझे फिर रजिया फुआ याद आ गई है।

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