कुर्सी केजरीवाल की ?

कैसा है 'आप' का यह सामंती चरित्र? आतिशी मुख्यमंत्री होने के बाद भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठ पा रही है।

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बाबा विजयेन्द्र

आदर्श और मर्यादा का दबाव बहुत बड़ा दबाव होता है। इससे निकलने का कोई रास्ता न दिखाए पड़े तो व्यक्ति हो या संस्थान हो, वह पाखंडी होने लगता है। यही स्थिति आज आम आदमी पार्टी की है। केजरीवाल शराब घोटाला में जेल गए थे और अभी बेल पर जेल से बाहर निकले हैं। इसके बाद इनपर मर्यादा पुरुषोत्तम होने का भूत सवार हो गया है। ये अपने जेल-गमन को वन-गमन घोषित करने में लगे हैं। संयोग ही है कि सीता के बदले इनकी पत्नी सुनीता साथ में जेल नहीं गयी थी? तब तो इनके अपने पाले हुए जितने भक्तचरण दास हैं वे अभी नयी रामायण लिखने में मस्त हो जाते?
कैसा है ‘आप’ का यह सामंती चरित्र? आतिशी मुख्यमंत्री होने के बाद भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठ पा रही है। यह किसी के बाप की कुर्सी तो नहीं है। यह दिल्ली की जनता की कुर्सी है। जनता तय करेगी किसे बैठना है या नहीं बैठना है। रिश्ता निभाना है तो इस पद से मुक्त हो जाएँ। जीवन में जो कुछ करना है वह सब करिये पर इस संवैधानिक पद से मुक्त होइए। केजरीवाल खाली कुर्सी को प्रतीक बनाकर मर्यादा पुरुषोत्तम राम होने की आत्मप्रवंचना कर रहे हैं। ये ना जाने कितने भरत को खड़ाऊं पकड़ा दिया है? खड़ाऊं का सम्बन्ध तो केवल अयोध्या से था। अरविंद का खड़ाऊं तो हर जगह जा रहा है। दिल्ली पंजाब तो हो ही गया है। अब आगे शिकार की इनकी तैयारी है।

आतिशी को जिस तरह से अहिल्या बनाकर उद्धार कर रहे हैं यह बहुत ही अफसोसजनक है। इनके हनुमान हाथ में गदा नहीं,बल्कि झाड़ू लिए घूम रहे हैं। दुर्भाग्य से अरविंद भी रावण की तरह ही वस्त्र बदलकर लोकतान्त्रिक मर्यादा का हरण कर रहे हैं। रावण भी संत का ही वेष धारण कर सीता को हरा था,वही अभी हो रहा है।

किसी ने इन्हें आंदोलन करने की ठेकेदारी तो नहीं दी थी। लोकतंत्र के सामने निराशा अवश्य थी। जनता उस निराशा से बाहर निकल सकती थी या समय की चाक पर कोई नेतृत्व गढ़ा जाता अरविंद ने सारा रास्ता बंद कर दिया। सारी संभावनाएं एबॉर्ट हो गयी। इस देश में लोकतंत्र के नाम पर कोई कुछ करना चाहेगा वह गहरी हताशा और निराशा में होगा। कोई भी परिवर्तनकारी समूह अब कुछ करना चाहेगा तो वह बहेलिया ही घोषित होगा? केजरीवाल लम्बे समय के लिए किसी होने वाले आंदोलन के मार्ग की बड़ी बाधा बन चुके हैं। किसी निजाम और उसके बदतर इंतज़ाम के खिलाफ आगे कौन बोल पायेगा ? शराब घोटाला से बड़ा अरविंद का यह सिद्धांत-घोटाला है। यह आडियॉलजिकल थेप्ट है। आदर्शों की लूट है वैचारिक-आतंकवाद है।

हुकूमत की आतिशबाजी कितनी खतरनाक है इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। इस्तीफ़ा दिया और दूसरे को कुर्सी पर बैठाया इससे किसी को कोई एतराज नहीं होगा। पर मुख्यमंत्री की कुर्सी के बगल में एक और कुर्सी को खाली छोड़ना दिल्ली की जनता के साथ एक मजाक है। ऐसी फूहड़ राजनीति की अपेक्षा इनसे नहीं की जा सकती थी? मुख्यमंत्री की कुर्सी को ‘आप’ की परिभाषा नहीं चाहिए।
केजरीवाल को बाबा भारती के घोड़े वाली कहानी पहले पढ़नी चाहिए भगत सिंह की डायरी बाद में? केजरीवाल सामान्य राजनेता की तरह राजनीति किये होते, जैसे सभी लोग छल प्रपंच में लगे हैं और ये भी लगे होते तो कोई निराशा नहीं थी। पर संत के नाम पर शिकारी हो जाना और बाबा के नाम पर बहेलिया हो जाना बहुत ही खतरनाक है। इनके प्रतिद्वंदी कुछ भी बोले इससे मेरा कोई लेना देना नहीं है। मेरी भाषा भाजपा की भाषा हो सकती है पर भाजपा की भाषा मेरी भाषा नहीं हो सकती है। अरविंद पर अभिव्यंजना भी क्यों करूँ? मैं इनसे सीधे अविधा में ही बात करूँगा?

नकली विरोध, नकली नारा और नकली नेतृत्व के भीतर की कथावस्तु अब समझना बहुत कठिन नहीं है। किसका केजरीवाल, किस लिए केजरीवाल और कब तक केजरीवाल? यह राज्य व्यवस्था का स्थायी चरित्र है। समय-समय पर एक केजरीवाल गढ़ा जाता रहा है। देश की जनता को यह जाने का हक़ है कि अरविंद केजरीवाल किसके एजेंडे पर काम कर रहे हैं ? कुर्सी को लेकर देश में हाहाकार मचा हुआ है।

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