ऐसे छिनी गई अन्नदाताओं की आत्मनिर्भरता
ब्रह्मानंद ठाकुर
मुनेसर भाई आज शहर से तोरी का बीज लेकर घर लौट रहे थे। रास्ते में बूटन की चाय दुकान पर मिल गये। जब से पकौड़ा तलने को रोजगार का दर्जा मिला है, तबसे गांव में भी चौंक-चौराहे, गली-मुहल्लों में चाय की दुकानें खुल गई है। कहने को चाय की दुकान, मगर ऐसी दुकानों पर पकौड़ा, लिट्टी, समोसा, चटनी, बरी -कचडी भी मिलती है। मैं अक्सर दुकान में चाय नहीं पीता। स्वास्थ्य कारणों से नहीं, स्वाद के कारण से। जब से दुकानों में स्पेशल चाय का दिन लदा, तभी से। मुनेसर भाई दुकान में बांस की पठ्ठी वाले बेंच पर ज्योहीं बैठे कि मुझ पर उनकी नजर पड़ गई। ‘आइए, आइए, मास्टर जी।बहुत दिनों बाद मुलाकात हुई है,’कहते हुए उस बंस फठ्ठिया बेंच पर मेरे बैठने वास्ते थोडी जगह बनाई। मैं उनसे सट कर बैठ गया। मेरी नज़र उनकी गोद में पड़े प्लास्टिक के एक आकर्षक पैकेट पर पड़ी। मैंने पूछा, इसमें क्या है मुनेसर भाई? ‘तोरी का हाईब्रिड बीज’ ‘मुनेसर भाई ने पूरा पैकेट दिखाते हुए कहा। मैंने पैकेट उनके हाथ से अपने हाथ में लेकर उलट -पुलट कर देखा। नामी कम्पनी का तोरी बीज था। मैंने पूछा, ‘कितने में मिला?’ ‘बारह सौ रुपये में। एक किलो का पैकेट है। दस-पन्द्रह कट्ठा में इससे बुआई हो ही जाएगी। ‘ मुनेसर भाई ने थोड़ा विस्तार से बताते हुए कहा ‘उत्तरा नक्षत्र अब जाने ही वाला है। आधा हथिया नक्षत्र बीतने के बाद का समय तोरी बुआई के लिए उपयुक्त होता है। फूल पर लाही का प्रकोप नहीं होता है। मौसम साथ दे तो उपज भी अच्छी हो ही जाती है। इसलिए अगात बीज ले लिए हैं। बाद में बड़ा तना-तानी होने लगता है। तब दुकानदार असली के दाम पर नकली बीज थमा देता है। ‘मुनेसर भाई अपनी रौ में कहें जा रहे थे और मैं अतीत की याद में खो चुका था। मुझे याद आया, एकबार ब्लौक से मुफ्त में तोरी बीज मुझे भी मिला था। खेत में लगाया। 25-30 दिनों बाद ही उसमें फूल आने लगे। देख कर मन बड़ा हर्षित हुआ था। मन में लड्डू फ़ूटने लगे। सोचा ,बढ़िया बौना वेराइटी है। अगात फसल हो जाएगी तो उस खेत में मक्का लगाउंगा। हर दूसरे-तीसरे दिन मैं इसमें निकलने वाली छिमियां निहारने खेत में जाता रहा। छिमियों को नहीं निकलनी थी सो नहीं निकली। मन मसोस कर उसे हरे चारे के रूप में इस्तेमाल किया। तब से मुफ्त वाली सरकारी बीज से तोबा कर लिया। जब देश में हरित क्रांति का आगाज नहीं हुआ था। रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, तृणनाशकों और हाईब्रिड बीज का नामोनिशान नहीं था। अपने पालतू मवेशियों का गोबर और राख-छाउर ही लोग खेतों में डालते थे। बहुत हुआ तो तम्बाकू और मिर्चाई की फसल लगाने वास्ते खेतों में सनई और ढैंचा लगा कर उसके थोडा बडा हो जाने के बाद जुताई कर उसे जमीन में मिला देते थे। कृषि वैज्ञानिक अब कहने लगे हैं कि हरी खाद से मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी दूर होती है। चौर के खेत में माघ महीने में मिट्टी का बड़ा-बडा चक्कर कुदाल से उलटवा कर छोड़ दिया जाता। फिर जेठ महीना में वही मिट्टी बैलगाड़ी से ढो-ढो कर भीठ खेत में हर तीन-चार साल के अंतराल पर पटाया जाता। रोहिन नक्षत्र में पहली बारिश होते ही उस मिट्टी को खेत में फैला कर हल से जोत कर खेत में मिला दिया जाता। जमीन की उर्वरा शक्ति इससे काफी बढ़ जाती थी। यह थी खेती की स्वदेशी तकनीक। और बीज ? तब किसान बीज के मामले में आत्मनिर्भर तो थे ही, पास-पडोस के किसानो से भी अच्छी गुणवत्ता वाले बीजों का अदला-बदली कर लेते थे। गेहूं के तब मात्र दो-तीन प्रभेद ही थे। इसकी खेती सीमित पैमाने पर होती थी। मुख्य फसल थी धान, मक्का, जौ, दलहन और तेलहन। नकदी फसलों में तम्बाकू, मिरचाई और गन्ना। कुछ पटसन भी। तब मक्के की फसल तैयार होने पर छिलका सहित उसकी बालियों को उसी के छिलके के सहारे एक-दूसरे से बांध कर झोरांटी बनाते और उस झोरांटी को दरवाजे पर खुले में एक खम्भे से टांग दिया जाता था। बुआई के समय उसी बाली के मध्ध भाग का दाना निकाल बुआई करते। धान का बीज धान के पुआल में मोर बनाकर, उसके ऊपर मिट्टी का लेप चढ़ा कर रखते। मूंग, मंसूर, उड़द, अरहर आदि के बीज हांडी या किसी बड़े बर्तन में बालू के साथ मिलाकर सुरक्षित रखा जाता था। न कीड़े लगते थे न घुन। यह थी बीजों के संरक्षण की हमारी अपनी परम्परागत तकनीक ! बीजों के अंकुरण क्षमता की जांच भी किसान ओल या केला के डंठल में बीज को 36 से 48 घंटे तक रखकर कर लेते थे। खेती में तब पूंजी की प्रधानता नहीं थी। श्रम महत्वपूर्ण था । किसान खुद खेतों में श्रम करते थे। फिर हरित क्रांति का दौर आया। खाद, बीज, कीटनाशक, तृण नाशक, जैसे उत्पादों और उन्नत कृषि तकनीक पर बड़े-बड़े कारपोरेट घरानों का धीरे धीरे कब्जा होना शुरू हुआ। फिर किसानों को हर साल नया बीज महंगे दाम पर खरीदने की मजबूरी। हरित क्रांति से देश खाद्यान्न उत्पादन मामले में आत्मनिर्भर ही नहीं, निर्यात करने की स्थिति में आ गया। लेकिन अन्नदाता किसानों का क्या हुआ ? वे लगातार फटेहाल रहने लगे। फसल तैयार होते ही उनकी सारी उपज खेती में लागत पूंजी वापस करने में ही बिक जाने लगी। फिर भी ऋण का बोझ माथे पर। कुछ यही स्थिति अब से 88 साल पहले लिखे प्रेमचंद के गोदान के किसान होरी की भी थी। इन्ही परिस्थितियों में होरी किसान से मजदूर बन गया था। उसका एक मात्र पुत्र गोबर अपनी रोजी-रोटी के लिए शहर की ओर पलायन कर गया। होरी ने भी अपने गांव में मजदूरी करते देह त्यागा किया। आजादी मिली। नेताओं ने किसानों को बड़े-बडे सपने दिखाए। बिहार में तो हर साल कृषि रोड मैप बनाए जाते रहे हैं, लेकिन किसानो की बदकिस्मती लगातार बढ़ती जा रही है। खेती के साल दर साल अलाभकर होते जाने, लागत खर्च बढ़ते जाने से किसानों के बच्चे खेती में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं देख, अपनी आजीविका के लिए महानगरों की ओर पलायन करने लगे हैं। मुनेसर भाई चाय पी चुके थे। वे तोरी बीज का पैकेट गमछा में लपेट अपने घर की ओर प्रस्थान किए और मै गांव के किसानों के गौरवशाली अतीत को धूसर वर्तमान में बदलने की स्थितियों पर चिंतन-मनन में लग गया।