डॉ योगेन्द्र
राजनीति सत्ता का खेल है और इस खेल में जो जीतता है, उसका ही प्रभुत्व कायम होता है। आपने चुनाव कितनी ईमानदारी से लड़ा, यह महत्वपूर्ण नहीं है। आपने जैसे तैसे चुनाव जीत लिया, यह बहुत महत्वपूर्ण है। राजनेता इस बात को भली-भांति जानते हैं और इसलिए जीतने के लिए हर जुगत लगाते हैं। जीते हुए लोगों पर टिप्पणी कीजिए तो ऐसे भी लोग हैं जो कहने लगते हैं कि जीते हुए नेता के समर्थन में चालीस प्रतिशत लोग हैं और आप टिप्पणी कर चालीस प्रतिशत लोगों की अवहेलना कर रहे हैं। आजकल सोचने का यह तरीका बहुत विकसित हो गया है। लगता है कि चालीस प्रतिशत लोगों ने जीते हुए नेता की गुलामी लिख दी है कि आप कुछ भी करें, हमारी गर्दन क्यों न रेत दें, हम चूं नहीं करेंगे। चालीस प्रतिशत जनता तो गुलाम हो गयी। बाहर जो साठ प्रतिशत जनता है, वह गुलामों के प्रतिनिधि के खिलाफ नहीं लिख बोल सकती, क्योंकि वे जीते हुए हैं। असल बात होती है, आपकी जीत। आप जैसे भी हों, जीत जायें। लोकतंत्र में आपकी जीत से ही बहुतों के मुख बंद हो जायेंगे।
लोकतंत्र जब यहां पर आकर खड़ा हुआ तो नेताओं ने जीत पक्की करने के लिए पहले पैसा छींटा, फिर अपराधियों का इस्तेमाल किया और आज कल ‘ प्रचारक कंपनियों ‘ को वे हायर कर रहे हैं। ये प्रचारक कंपनियां एक तरह से आधुनिक ब्रोकर हैं जो ज्यादातर असत्य का झूठा प्रचार करते हैं। अपराधी नेताओं को इसलिए जिताते थे, क्योंकि उन्हें उनसे संरक्षण चाहिए था। बाद में अपराधियों को लगा कि उनके भरोसे ही नेता जीतते हैं तो क्यों नहीं वे ही नेता बन जायें। और हुआ भी वही। अनेक अपराधी विधायक और सांसद बन गये। प्रचारक कंपनियों में एक कंपनी प्रशांत किशोर की आयी। 2014 में उन्होंने नरेंद्र मोदी जी को जिताया। इसके बाद वे नेताओं के विभिन्न घरानों के पास पहुंचे। कभी ममता बनर्जी के पास तो कभी नीतीश कुमार के पास। उनका काम जीतना था। वे तटस्थ भाव से प्रोफेशनल कार्य करते रहे। एक बार उनके अंदर राजनेता बनने की हुई। वे नीतीश कुमार की पार्टी में शामिल हो गए और पार्टी महासचिव बने, लेकिन बात जमी नहीं। वे वहां से निकल आये और प्रोफेशनल बने घूमते रहे।
एक दो वर्षों से अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को आकार देने के लिए जन सुराज बनाया । बिहार में जहां तहां पैदल भी चले। उन्होंने गांधी जी की बड़ी तस्वीर लटका ली। कभी अरविंद केजरीवाल ने भी गांधी जी की तस्वीर लटकाए फिर रहे थे। आजकल मौके के अनुसार डॉ अम्बेडकर और भगत सिंह की तस्वीर लटका ली है। प्रशांत किशोर राजनीति के तकनीशियन हैं। उन्होंने पैसा ही बहुत कमाया है। बाकायदा अपने कार्यकर्ताओं को गाड़ी, माहवार वेतन और होटल आदि मुहैय्या करते हैं। देश में बेरोज़गारी बहुत है। महत्वाकांक्षी लोग भी हैं। जहां ऐसे लोग मौजूद हों, तो लोग भी मिलेंगे। भीड़ जमेगी। वे तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार के प्रति जितने निर्दय बयान देते हैं, नरेंद्र मोदी जी के प्रति उतने ही सदय हैं। इतना तो तय है कि उन्हें जनता पैसा नहीं दे रही। पैसे का कहीं स्रोत है। कोई उस स्रोत पर तो हमला नहीं करेगा। इसलिए वे पिछले चुनाव में बीजेपी के प्रति अतिरिक्त श्रद्धालु थे। साढ़े तीन सौ सीट दे रहे थे और चैनल पर गरज रहे थे। आज भी वे अपने प्रभु के बारे में कुछ नहीं कहते। लगातार मुख्यमंत्री की तरह घोषणाएं पर घोषणाएं कर रहे हैं। लगता है कि बिहार के उद्धारक आ गये हैं।
यह फोटो न्यूज़ 18 से साभार