साथी, दूर जाना

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सुबह से ही यह पंक्ति मन में उमड़ – घुमड़ रही थी। साथी, दूर जाना।साथी , दूर जाना। मैंने मन से पूछा – कितनी दूर जाना? कहां जाना? कहीं कोई और तड़प तो नहीं है? महादेवी वर्मा वाली या हरिवंशराय बच्चन वाली? वे दूर जाना दूर जाना लिखते रहे और धरती पर जमे रहे। दूर वे तब गये, जब जाना नहीं चाहते थे। जवानी में जीवन व्यर्थ हो जाता है। कुछ भी हुआ कि मन बिसूरने लगता है – नहीं बचा कुछ। मर जाना अच्छा। जवान लोगों के पास बचे हुए कई साल रहते हैं, इसलिए मरने की बात करते हैं। उनके पास पूंजी है। वे उसे दांव पर लगा सकते हैं। बूढ़े लोग मरने की बात नहीं करते, बल्कि जीवन से चिपके रहते हैं। मरने के लिए अब बचा क्या है? पूंजी बची नहीं, तो लुटायें क्या? जवानी भावुक होती है।बात बात में रूठती और ऐंठती है। बुढ़ापा ठोस होता है। लुटा – लुटाया, पिटा – पिटाया। वह दूर जाये तो कहां जाये? कुछ लोग हैं कि जो नजदीक मणिपुर नहीं जा सकते, वे रूस, यूक्रेन, अमेरिका जा सकते हैं। उन्हें दूर पसंद है। दरअसल दूर जाने की भी हैसियत होनी चाहिए। केवल दुहराने से काम नहीं चलेगा – साथी, दूर जाना।

गांव में एक बूढ़ा था। लाठी टेकता, खांसता, हिलता – डूलता, चलता। लगता कि देह को आत्मा कभी भी छोड़ सकती थी। या कहिए कि देह जबर्दस्ती आत्मा को पकड़े हुए थी । पीछे से छौंड़ा सब पूछता – बाबा, कब भोज खिलेयभो? बाबा खिसियाते। वे छौंड़ा सबको घिनायी हुई गाली बकते। वे बाप दादा उकटते। जो चीज छूटने लगती है, उससे उतना ही मोह होता है। अडवाणी जी से जब कुर्सी छुड़वाई गई, तो वे अलबला गये। जिंदगी भर कुर्सी कुर्सी करते रहे। उसी के लिए लड़ते रहे। क्या क्या पापड़ नहीं बेले, लेकिन नयी पीढ़ी ने फरमान जारी किया। बेचारे, कुर्सी से दूर और दूर होते गये। उन्होंने शायद ही पुकारा होगा – साथी, दूर जाना।साथी दूर जाना। मेरे मन में दूर जाने का घंटा इसलिए बज रहा है, इसलिए कि छोड़ने के लिए कोई कुर्सी बची नहीं है।

मन को क्या है? कोई काम धंधा तो है नहीं? भूत की तरह चौबीसो घंटे जगा रहता है। देह सो गयी और मन घूमने – टहलने निकल गया। मन चौबीसो घंटे जगा रहेगा, तो कुछ न कुछ तो करेगा। लेकिन मन के भी प्रकार होते हैं। सभी मन समाजवादी नहीं होते। कोई पूंजीवादी होता है। कोई दक्षिणपंथी होता है।किसी के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। किसी के पास खोने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन दांतों से पकड़ रखा है। वह तो अतिरिक्त मोह में जकड़ा है। जितना है और चाहिए। एक दिन मैंने उसे विश्वविजेता सिकंदर वाली बात बतायी।‌ उसे प्रबोधित करते हुए कहा – “काहे हाय हाय करता है? सिकंदर पूरा जीवन हाय हाय करता रहा। अंत में मरने लगा तो उसे ज्ञान हुआ। उसने अपने अनुयायियों से कहा कि जब वह मर जाये तो उसके दोनों हाथ अर्थी से बाहर रखना जिससे दुनिया को पता चल सके कि विश्व विजेता सिकंदर भी मरा , तो पृथ्वी पर से खाली हाथ ही गया था। “

मैंने तो उसे दुनिया की सच्चाई से अवगत कराया था , मगर वह तो संपत्ति के नशे में चूर था। उसने कहा -” हमको तुम सिखाते हो? सिकंदर पूरा जीवन मजा लेता रहा और मरने लगा तो बकैती छांट कर गया। जवानी में उसका ज्ञान क्या घास चरने गया था? वह बहुत चालाक था। खूब खाया, खूब पीया। खूब मजे उड़ाया। वह जानता था कि ऊपर कुछ नहीं होता, सब नीचे धरती पर ही होता है। ऊपर में क्या होता है, क्या नहीं, किसको पता? नीचे धरती पर तो मजा मार लें।” मैंने भी सोचा कि मेरा ज्ञान भी कितना बंजर हो गया है। दुनिया के सामने टिक ही नहीं पा रहा। दुनिया कहीं और सरक रही है और मैं कहीं और भागे जा रहा हूं। दुनिया को तो नव ज्ञान चाहिए और हम हैं कि ‘ साथी, दूर जाना, साथी दूर जाना ‘ दुहराये जा रहे हैं।

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