लोकतंत्र में लोक कहीं का नहीं रहा।

नौकरी और व्यवस्था के खिलाफ का यह द्वन्द्व सिर्फ मेरा नहीं है। मेरे जैसे अनेक लोगों का यह द्वन्द्व अनवरत जारी है।

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1974 में भागलपुर आया था। छात्र आंदोलन चरम पर था।‌ पंद्रह वर्ष की उम्र थी। गांव से कभी-कभी मुंगेर आया था, क्योंकि वहां मेरा ननिहाल था।‌इसके अलावे किसी शहर को देखा नहीं था। भागलपुर में अकेला रहने लगा। मन हहरता था। दुर्भाग्य से एक घटना घट गई। मैं एक दिन खलीफाबाग से कोतवाली की ओर जा रहा था। अचानक पुलिस की गाड़ी मेरे आगे रूकी और दो तमाचे उसने लगाये और जीप में बैठाया और कोतवाली के हाजत में बंद कर दिया। मैं तो अवाक था। आंदोलन से उस वक्त कुछ लेना-देना नहीं था। दूसरी बार मुझे सिस्टम का अहसास हुआ। पहली बार उस वक्त हुआ था , जब पिताजी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था।‌उन्होंने कुएं से पानी निकाल लेने वाला मोटर के लिए बैंक ऋण लिया था। वे यथासंभव ऋण चुकाते भी गए। पैसा अगर शेष था तो नोटिस आनी चाहिए थी। दोनों घटनाओं ने मुझे बताया कि लोकतंत्र में लोक कुछ नहीं होता है , तंत्र ही सबकुछ होता है। उस दिन से मेरा मन तंत्र यानी व्यवस्था के खिलाफ हो गया। जब भी व्यवस्था परिवर्तन की बात होती, मैं उसमें शामिल हो जाता।

आज तक मैं ठीक से व्यवस्था के साथ एडजस्ट नहीं कर सका। जीवन बिना पैसे का चल नहीं सकता है, इसलिए नौकरी भी तलाशता रहा और व्यवस्था के खिलाफ भी। यह द्वैत था जो जीवन भर रहा। पहले सोचा कि पत्रकारिता कर लूं। पूरी आजादी रहेगी। दो वर्ष के बाद यह अहसास हुआ कि ढोल का बोल सिर्फ सुहावन होता है। वहां से वापस हुआ तो शिक्षक बना। स्कूल शिक्षक। पहली निजी स्कूल में, फिर सरकार हाई स्कूल में। सरकारी स्कूलों में भी शिक्षक पर भी कम दबाव नहीं होता। आंदोलन नहीं करना है, सरकार के खिलाफ नहीं बोलना है। मैं वहां भी एडजस्ट नहीं कर पा रहा था। 1989 में बोफोर्स कांड के खिलाफ देश में आंदोलन हुआ। वी पी सिंह इस्तीफा देकर बाहर आये। जन मोर्चा बना और मैं उसमें शामिल हो गया और भारत बंद का आह्वान हुआ और मैं बंदी में जेल चला गया।  वैसे घर से चला था स्कूल के लिए और चला गया जेल।‌ शाम को घर नहीं लौटा तो पत्नी और सगे संबंधी परेशान।

नौकरी और व्यवस्था के खिलाफ का यह द्वन्द्व सिर्फ मेरा नहीं है। मेरे जैसे अनेक लोगों का यह द्वन्द्व अनवरत जारी है। डॉ लोहिया ने संसद में एक बार कहा था कि हर सरकारी सेवक को बोलने का अधिकार होना चाहिए। लोकतंत्र में लोगों का मुख बंद रखना लोकतंत्र की अवहेलना है ‌। आज लोकतंत्र की क्या हालत है? पत्रकार का मुंह बंद है। अखबार और चैनल चरण चुम्बन कर रहे हैं। शिक्षक को तो जैसे लकवा मार गया है। आम लोग अपनी ही तंगी में फंसे हैं। हालत यह है कि प्रधानमंत्री के सामने मंत्री मुंह नहीं खोल पाता। मुख्यमंत्री का मुंह विधायक जोहता रहता है। लोकतंत्र में लोक कहीं का नहीं रहा। लोक की भावनाओं का कोई मतलब नहीं है। लोकतंत्र की शुरुआत से ही लोक का गला टीपा जाता रहा। अगर इसके तरीके नहीं बदले गए, तो लोकतंत्र कबाड़खाना बन जायेगा।

डॉ योगेन्द्र

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