जब मूंछों से मूंछ टकराये

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युद्ध मूँछों की लड़ाई है। मूँछें हर वक़्त तनी रहे। तनी मूँछों ने बहुत बखेड़े खड़े किए हैं । वे बलि माँगती है । वह भी ज़िंदा आदमी की। यूक्रेन के राष्ट्रपति की मूँछें थोड़ी छोटी हैं, लेकिन उसे अमेरिका ने थाम रखी है। मूँछें गिरे नहीं । वह तनी रहे। विश्व में कई देश ऐसे हैं , जो इसी फ़िराक़ में रहते हैं कि अगर किसी की मूँछें गिरने लगे , तो वह तुरंत थाम लें । मूँछों को थामने में वे देर नहीं करते ,क्योंकि उन पर ही उनकी मूँछें भी निर्भर हैं । अमेरिका की मूँछों का अपना इतिहास है। उसने बम – तम बहुत बना लिये । दरअसल बम से ही उनकी मूँछों में ताव आते हैं। जिस देश के पास जितने बम , उस देश की मूँछें उतनी ही खड़ी । ये आधुनिक युग के वैश्विक ज़मींदार हैं । उन्होंने कई छोटे छोटे देशों को पाल रखे हैं । कुछ को चीन- रूस ने पाल रखा है, कुछ को अमेरिका- ब्रिटेन ने। ज़मींदार की मूँछें भी इस पर निर्भर करती थी कि उनके दरवाज़े पर कितने कारिंदे हैं? कारिंदे उनकी ज़मींदारी में हरबे- हथियार लेकर फैले रहते थे। किसानों के रक्त लाकर ज़मींदारों को देते थे। ज़मींदार उसी रक्त से अपनी मूँछें पिजाते थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध की एक कथा है। जब युद्ध शुरू हुआ तो अमेरिका के राष्ट्रपति रूज़वेल्ट थे। युद्ध की समाप्ति के छह महीने पूर्व उनकी अकस्मात् मृत्यु हो गई । उस वक़्त ट्रूमैन वहॉं के उप राष्ट्रपति थे। वे राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुए । द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। अमेरिकी फ़ौजें जापान में युद्धरत थी। जापान परास्त हो रहा था और धीरे-धीरे वह सरेंडर कर रहा था। ट्रूमैन ने अपने कमांडर को आदेश दिया – जापान पर बम गिराओ । कमांडर ने कहा कि सर, जापान तो खुद ही सरेंडर कर रहा है । इस पर बम गिराने की ज़रूरत नहीं है। राष्ट्रपति ट्रूमैन ने कहा कि बम किस दिन के लिए बनाया गया है? इसका परीक्षण करो। कम से कम पता तो चले कि बम गिराने से क्या-क्या होता है? और हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराया गया । स्कूल में बैंच पर बैठे बच्चे पिघल गये। दोनों शहर तबाह हुआ और लगभग दो लाख लोगों के रक्त से ट्रूमैन की मूँछें नहा गयीं। मूँछों ने बहुत सी अमानवीय कथाएँ लिखीं हैं । अब भी लिख रही हैं । आप रूस- यूक्रेन के युद्ध में भी देख सकते हैं और इज़राइल- फ़िलिस्तीन युद्ध में भी।
मैं कुछ दिन पूर्व एक गाँव गया था । वहाँ शंकर लकड़ा मिले। पचहत्तर वर्ष के थे। वे बार- बार अपनी मूँछें फेर रहे थे। यों मूँछें सफ़ेद हो चली थीं, लेकिन उसमें ताव कम नहीं थे। मैंने सोचा कि वे इन मूँछों पर बार बार ताव क्यों दे रहे हैं ? ऐसी कोई बात तो उनकी झोपड़ी में नज़र नहीं आती कि वे मूँछों पर ताव देते रहें? वे जहॉं बैठे थे, ठीक उनके पीछे राख थी, जिस पर मुर्ग़ी बैठी थी। वे कभी-कभी कुडकुडाती थी। झोपड़ी टाट से घिरी थी। निर्धनता हर कोने से झांकती थी। मैंने नोटिस की। दो तीन किंगफ़िशर की ख़ाली बोतलें लुढ़की पड़ी थीं। उनके गाँव को देखा। मूँछें तनने वाली कोई बात नहीं थी।
शंकर लकड़ा की मूँछें तनी हैं। है कुछ नहीं, मगर तनी हैं। ये तनी मूँछें झगड़ भी नहीं रहीं । पुतिन, जलेंस्की, न्येतनआहू आदि की मूँछें अलग क़िस्म की हैं । एक की मूँछें प्राकृतिक हैं, दूसरे की मूँछें अप्राकृतिक । कभी-कभी सोचता हूँ कि महात्मा बुद्ध, महात्मा गाँधी सहित साधु- संन्यासियों को मूँछें क्यों नहीं थीं? उनके पास गर्व करने के लिए बहुत कुछ थीं । वे मूँछों पर ताव फेर सकते थे। आश्चर्य यह भी है कि यूक्रेन में भी महात्मा गाँधी की प्रतिमा लगी है और रूस में भी। काश, यूक्रेन के राष्ट्रपति जलेंस्की और रूस पर क़ब्ज़ा जमाये पुतिन उनकी प्रतिमा से ही कुछ सीख लेते। अगर मूँछें ही रखनी है तो शंकर लकड़ा की तरह रखें या फिर महात्मा गाँधी की तरह सफ़ाचट करा लें । मूँछों की बदतमीज़ियों से विश्व के कई कोने लहक रहे हैं । मूँछों ने हज़ारों भोले बच्चों का शिकार किया है और औरतों का भी। आपकी मूँछें भी जब तब खड़ी होने लगे तो उसे सावधान कर दें । अंततः मूँछों को थामा न जाये तो तबाही ही लाती है ।

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